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हम्मीर महाकाव्य : नयचन्द्र सूरि
भाषा-शैली
हम्मीरमहाकाव्य की भाषा महाकाव्योचित प्रोढता तथा प्राणवत्ता से परिपूर्ण है । नयचन्द्र का भाषा पर पूर्ण अधिकार है । उसके विचार में कीर्ति - प्राप्ति के लिये विशुद्ध वर्णन उतना ही आवश्यक है जितना निर्मल अर्थ | " नयचन्द्र शब्द और अर्थ दोनों के कवि हैं । अर्थ के प्रति उनका निश्चित पक्षपात है, किन्तु इस नाते उन्होंने शब्द की उपेक्षा नहीं की है । विद्वतापूर्ण व्याकरणनिष्ठ प्रयोगों से भाषा को परिष्कृत एवम् अलंकृत करने का साग्रह प्रयास शब्द के महत्त्व की स्वीकृति है । यद्यपि नयचन्द्र ने न तो भट्ट की तरह अपने काव्य में व्याकरणशास्त्र के नियमों की प्रायोगिक व्याख्या की है और न माघ की भाँति भाषा को गाढबन्ध तथा विकट समासान्त पदावली से बोझिल बनाया है तथापि उनका वैयाकरण पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति से सर्वथा मुक्त नहीं है । कर्तरि तथा कर्मणि लुङ्, लिट् आदि लकारों और सन्, क्वसु, णमुल् आदि प्रत्ययों की हम्मीरकाव्य में भरमार है । कहीं-कहीं तो नयचन्द्र ने एक ही कार की क्रियाओं तथा समान प्रत्ययान्त प्रयोगों के द्वारा भट्टि के कार्य का निर्वाह करने की चेष्टा की है । ये पद्य, जिनमें सभी क्रियाएँ क्रमशः सनन्त, लुङ् तथा लिट् कार की हैं, इसी प्रवृत्ति को द्योतित करते हैं ।
प्रचिकीर्षसि चेद् राज्यं जिजीविषसि चेच्चिरम् । ४.६६ अपाठिषुर्बन्दिजनास्तदानीमराणिषु मंगलतूर्याणि । अतिषुर्नविदश्च गीतमगासिषुर्गायकमण्डलानि ।। ८.६० धर्मो जगर्जेव दरिद्रमुद्रा क्वचिन्ननाशेव बभाविव श्रीः । समुल्लासेव नयद्रुमोऽपि शुभं ननर्तेव तदीयराज्ये ॥। ८.६८
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afa की इस व्याकरण - विशारदता के कारण हम्मीरमहाकाव्य की भाषा रस, भाव तथा प्रसंग की अनुगामिनी है । भाषा की अनुकूलता काव्य में रोचक वैविध्य की सृष्टि करती है । हम्मीर महाकाव्य में कहीं श्रुतिमाधुर्य है, कहीं कर्कशता है और कहीं वह सहजता तथा प्रांजलता से परिपूर्ण है । शृंगार तथा करुणरस के चित्रण में सर्वत्र कोमल तथा मनोरम पदावली प्रयुक्त हुई है, जो अपनी स्निग्धता तथा भावोद्बोधकता के कारण समुचित भावभूमि का निर्माण करती है । करुणरस की पदावली की कोमलता दैन्य की रेखा से रंजित हैं, जो शोकाकुल मानव की असहा यता की स्वीकृति है । हम्मीर के अतुल बलिदान पर कवि की यह शोकोक्ति व्यथित हृदय की कातरता तथा तीव्र वेदना को व्यक्त करती है ।
fie कुर्वीमहि किं ब्रवीमहि विभुं कं चानुरुन्धीमहि व्याचक्षीमहि किं स्वदुःखसमं कं वा बभाषेमहि ।
५७. विशुद्धवर्णः स्पृहणीयवृत्तः । वही, १. ४६
air natद्रा इव निर्मलार्थोत्पत्ति नरेन्द्राः परिभावयन्ति । वही, ८.६