________________
२८८
जैन संस्कृत महाकाव्य
नयचन्द्र ने यहां अनुभव शब्द का प्रयोग बहुत स्थूल अर्थ में किया है । शृंगार के भोक्ता तथा शृंगार-रसात्मक कृति के प्रणेता की प्रकृति की भिन्नता के उदाहरण की यही ध्वनि है। इस सीमित अर्थ में अनुभव निश्चित ही काव्यरचना का हेतु नहीं है । ऐसा न मानने से कवि-कर्म इतना संकुचित हो जाएगा कि स्वभुक्त यथार्थ की अभिव्यक्ति के बिना काव्य-सृजन की कल्पना करना भी असम्भव होगा। किन्तु अनुभव की इस स्थल अर्थ में स्वीकृति काव्य-सृजन तथा अनुभूति की प्रक्रिया की निविवेक अस्वीकृति है। प्रत्यक्ष अनुभव के बिना भी संवेदनशील मस्तिष्क, रागात्मक स्तर पर, सहजात संस्कार द्वारा अनुभूति अर्जित करता है जिसके आधार पर उसे प्रच्छन्न अथवा परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्षवत् साक्षात् होता है। तब वह विशेष भी निविशेष बन कर सर्वग्राह्य हो जाता है। विश्व के अधिकांश साहित्य की रचना के पीछे यही अनुभव निहित है। अतः कामशास्त्र के प्रणेताओं अथवा शृंगारिक कवियों के ब्रह्मचारी होने में कोई वैचित्र्य अथवा विरोध नहीं है क्योंकि उनमें भी सभी अनुभूतियां वासना-रूप में विद्यमान रहती हैं । यदि नयचन्द्र का अभिप्राय सापेक्षिक दृष्टि से अनुभव की तुलना में प्रतिभा को अधिक महत्त्व देकर उसकी अनन्त-निर्माणक्षमता का संकेत करना है, तो उनका मत सर्वथा अग्राह्य नहीं है।
काव्यहेतु का विस्तार से प्रतिपादन करने के पश्चात् नयचन्द्र ने काव्य के स्वरूप पर विचार किया है। उनके अनुसार तीव्र रसानुभूति का दूसरा नाम ही काव्य है। प्राचीन आचार्यों ने भी काव्य की सार्थकता रसात्मकता में मानी है । उत्तम काव्य वही है, जो रस की उच्छल धारा से परिपूर्ण हो तथा जिसे पढते ही हृदय आनन्द से आप्लावित हो जाए। काव्य में प्रधानता किसी भी रस की हो, उसमें शृंगारपूर्ण वर्णन उतने ही आवश्यक हैं जितना भोजन में नमक । जैसे नमक के बिना अन्यथा स्वादु भोजन भी नीरस है, उसी प्रकार शृंगार के स्पर्श के बिना काव्य की रसात्मकता में निखार नहीं आता । इस प्रकार नयचन्द्र के विचार में रसप्रधान रचना ही काव्य-पद की अधिकारिणी है। उनका यह कथन विश्वनाथ के 'वाक्यं रसात्मक काव्यम्' से भिन्न नहीं है। उन्होंने काव्य में अर्थ की प्रधानता मानी है। शब्दाडम्बर हेय है, किन्तु नयचन्द्र ने शब्द की सर्वथा उपेक्षा नहीं की; इसका संकेत किया जा चुका है।
काव्यशास्त्रीय प्रसंग के अन्त में नयचन्द्र ने काव्य की भाषा पर भी कुछ प्रकाश डाला है। उनके मत से शब्द और अपशब्द प्राय: मन के विकल्प हैं और शब्दशास्त्र में सिद्धि भी कवि के अधीन है। सामान्यतः काव्य में अपशब्द के प्रयोग ६४. न काव्यार्थविरामोऽस्ति यदि स्यात्प्रतिभागुणः। ध्वन्यालोक, ४.६ ६५. हम्मीरमहाकाव्य, १४.३५ ६६. वही, १४.३४