________________
२६६
जैन संस्कृत महाकाव्य
अपमान सहना पड़ा। छठे सर्ग में यवनराज के आक्रमण, कुमारपाल के हाथों शाकम्भरी-नरेश अर्णोराज की पराजय और सौराष्ट्र के शासक सुंसर तथा कुमारपाल के मन्त्री उदयन के युद्ध का वर्णन है । उदयन सौराष्ट्र- नरेश का वध करने में सफल होता है परन्तु बाणों से क्षत-विक्षत होकर स्वयं भी वीरगति प्राप्त करता है। सातवें सर्ग में कुमारपाल वाग्भट को मंत्री तथा आम्बड़ को दण्डपति नियुक्त करता है । कुमारपाल पुत्रतुल्य मन्त्री को राज्यभार सौंप कर धर्मकार्यो में प्रवृत्त हो जाता है । आठवें सर्ग में कुमारपाल की दानशीलता, गुरुभक्ति, धार्मिक उत्साह, प्रजारंजन एवं उदारता का वर्णन किया गया है। हेमचन्द्र की प्रेरणा से वह प्रजा को निष्ठा पूर्वक जैनधर्म में दीक्षित करता है तथा अमानुषिक सम्पत्ति अधिकार समाप्त कर देता है | नवें सर्ग 'कुमारपाल के आग्रह पर आचार्य हेमचन्द्र उसके पूर्व-भव का वर्णन करते हैं, जो उन्हें देवी पद्मा के द्वारा अर्हत्पति सीमन्धर से ज्ञात हुआ था । दसवें सर्ग में कुमारपाल विमलगिरि तथा रैवतक तीर्थों की यात्रा करता है । तीर्थयात्रा से पूर्व डाहल- नरेश कर्ण के भावी आक्रमण की सूचना मिलती है, किन्तु, आक्रमण करने से पूर्व ही, उसकी मृत्यु हो जाती है । सर्ग के शेषांश में वाग्भट, आम्रभट ( आम्बड़ ), हेमचन्द्र और कुमारपाल की मृत्यु तथा उससे उत्पन्न व्यापक शोक का चित्रण है ।
काव्य के उपर्युक्त सार से स्पष्ट है कि कवि ने अपने चरितनायक के जीवन वृत्त को लेकर दस सर्गों का वितान खड़ा किया है । यह वितान शिथिल तन्तुओं से बंधा हुआ है । इसलिये काव्य के कथानक में सुसम्बद्धता तथा अन्विति का अभाव है । काव्य के कतिपय वर्गों तथा सर्गों में तो कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है ।
रसयोजना
धर्मवृद्धि के सीमित उद्देश्य के पोषक कवि के लिये काव्य का महत्त्व रोचक माध्यम से अधिक नहीं है, पर चारित्रसुन्दर ने धार्मिक आवेश के कारण काव्य 'की आत्मा की उपेक्षा नहीं की, यह सन्तोष की बात है । उसने मनोभावों के सरस चित्रण के द्वारा काव्य में मार्मिक स्थलों की श्लाघ्य सृष्टि की है । यद्यपि उसकी कल्पना तंग परिधि में वेष्टित है तथापि विभिन्न रसों का चित्रण करने में उसने दक्षता का परिचय दिया है । इतिहास के पराक्रमी शासक के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण कुमारपालचरित में वीररस की प्रधानता मानी जा सकती है, भले ही यह काव्य की समग्र प्रकृति तथा वातावरण के बहुत अनुकूल न हो । तृतीय सर्ग में आम्बड़ तथा कोंकणराज और छठे सर्ग में कुमारपाल एवम् अर्णोराज के युद्धों के वर्णन में वीररस का भव्य परिपाक हुआ है । चारित्र सुन्दर के वीररस में योद्धाओं का एक दूसरे पर टूटना, अट्टहास करना, हाथियों का चिंघाड़ना आदि वीररसात्मक रूढियों का संकेत मिलता है, जो कालान्तर में युद्ध चित्रण की विशेषताएँ बन गयीं ।