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जैन संस्कृत महाकाव्य
कृष्ण
कृष्ण कुमारपाल का बहनोई तथा सेनापति है। सिद्धराज के निधन के पश्चात् राज्य प्राप्त करने में वह कुमारपाल की पर्याप्त सहायता करता है । परन्तु जब वह कुमारपाल को उसके प्रारम्भिक जीवन के विषय में उपालम्भ देकर लज्जित करने लगा और समझाने-बुझाने पर भी नहीं माना तो कुमारपाल अपना मार्ग निष्कण्टक करने के लिए उसका सिर काट देता है। भाषा
चारित्रसुन्दर ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए भाषा-सौन्दर्य की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया है। कुमारपालचरित की भाषा प्रौढ़ता से वंचित है । काव्य में सरल तथा सुगम भाषा का प्रयोग किया गया है, जिससे वह साधारण पाठक के लिए भी बोधगम्य हो सके । इसीलिए वह क्लिष्टता तथा दुरूहता से सर्वथा मुक्त है । अपनी भाषा को सर्वजनगम्य बनाने के लिए कवि ने उसकी शुद्धता की बलि देने में भी संकोच नहीं किया है। काव्य में व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य प्रयोग भी दृष्टिगत होते हैं । 'प्राप्य' के स्थान पर 'आप्य' का (७.१.३३), सिद्ध राजस्य तथा मलिकार्जुनराजस्य के लिए 'सिद्धराज्ञः' तथा 'मलिकार्जुनराज्ञः' (१.२.३६,३.३.१) का प्रयोग कवि ने इस सहजता से किया है मानो इसमें कुछ भी आपत्तिजनक न हो। यहाँ वह काव्यदोष है, जिसे साहित्यशास्त्र में 'च्युतसंस्कार' कहा गया है । चारित्रसुन्दर की भाषा में 'अधिक' दोष भी दृष्टिगत होता है। तारतम्यबोधक 'रुचिरतर' के साथ आधिक्यवाचक 'अति' का प्रयोग अनावश्यक है (२.३.४)। इसी प्रकार छन्दपूर्ति के लिए शब्दों के वास्तविक रूप को विकृत करने में भी कवि को कोई हिचक नहीं है । कुमार के लिए अधिकतर कुमर का प्रयोग छन्द-प्रयोग में कवि की असमर्थता का परिणाम है (२.२.७०; २.३.३७) । इसी अक्षमता के कारण कवि मे कहीं-कहीं सन्धि को भी तिलाञ्जलि दी है । 'वर्षाऋतो' पद केवल छन्दपूर्ति के आधार पर क्षम्य हो सकता है । कुमारपालचरित की भाषा में 'निस्सान' (२.४.१४) तथा चंग (७.१.६) आदि कुछ देशी शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं। चारित्रसुन्दर के काव्य में यायावर पद्यों का समावेश करने की विचित्र प्रवृत्ति दिखाई देती है। 'आरभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः' तथा 'विजेतव्या लंका चरणतरणीयश्च जलधिः' आदि ऐसे पद्य हैं, जो साहित्य में पहले ही सुविज्ञात हैं।
फिर भी कुमारपालचरित की भाषा प्रसंगानुकूल है। उसकी विशेषता यह है कि ओजपूर्ण प्रसंगों में भी उनकी सरलता यथावत् बनी रहती है । अधिकतर एकरूप होने पर भी उसमें वर्ण्य भाव के अनुरूप वातावरण निर्मित करने की क्षमता है। हेमचन्द्र की मृत्यु तथा उससे उत्पन्न शोक के वर्णन की भाषा भाव की अनुगामिनी है।