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कुमारपालचरित : चारित्रसुन्दरगणि
३०१ अहह सृजसि धातविश्वविश्वावतंसं पुरुषमखिलविद्यावन्तमुद्यत्प्रशंसम् । तमपि यमसमीपं प्रापयन्नात्मनव
व्रजसि बत ! विनाशं किं कृतघ्नेश न त्वम् ॥ १०.२.१२ नीतिपरक प्रसंगों में सरलतम भाषा प्रयुक्त की गयी है। जनसाधारण में नीतिकथनों को तुरन्त आत्मसात् करने तथा दैनिक जीवन में उनका उपयोग करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। अत: इनकी भाषा का सहज तथा सुबोध होना परम आवश्यक है।
विवेकदीपो हृदि तावदेव स्फुरत्यहो दर्शितधर्ममार्गः । उन्मूलिताचारविचारवृक्षो न वाति यावत्किल कामवायुः ॥ १.२.६ उपकारोऽपकारो वा यस्य व्रजति विस्मृतिम् । पाषाणहृदयस्यास्य जीवतीत्यभिधा मुधा ॥ ४.१.१२ मितम्पचश्रीरधमोत्तमेच्छा सुरंगधूली कुसुमं वनस्य ।
छाया च कूपस्य विनाशमते पंचापि तत्रैव किल प्रयान्ति ॥ १०.१.३४ कुमारपालचरित्र में विभिन्न प्रसंगों में, कुछ सटीक सूक्तियाँ प्रयुक्त हुई हैं। उनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं-पुत्रस्नेहो हि दुस्त्यजः (१.३.४१), परकृते कुर्वन्ति किं नोत्तमा: (७.१.४१), अब्धिना कः समस्तेन यद्वेला अपि दुस्तरा (८.२.३०), कर्माभुक्तं क्षीयते नो (६.२.३८) ।
___ कुमारपालचरित की भाषा में भले ही प्रौढता न हो, उसमें सरलता का सौन्दर्य है । यही उसका आकर्षण है। अलंकार-विधान
___कुमारपालचरित के कर्ता का उद्देश्य सरल-सुबोध भाषा में जैनधर्म के एक समर्थ प्रभावक का परित वणित करना है। इसलिये यह विद्वत्ता-प्रदर्शन के एक प्रमुख उपकरण, अनावश्यक अलंकृति, से आक्रांत नहीं है। उसकी शैली में अलंकार स्वा: भाविकता से प्रयुक्त हुए हैं। वे सदा भावभिव्यक्ति में सहायक हों, यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु उन्होंने काव्य-सौन्दर्य को प्रस्फुटित अवश्य किया है।
शब्दालंकारों में, कुमारपालचरित में, अनुप्रास का बाहुल्य है । अनुप्रास काव्य में मधुरता का जनक है । जयसिंह की दिग्विजय-समाप्ति के निम्नोक्त पद्य में अंत्यानुप्रास का माधुर्य देखिये
इति जितनिखिलाशः सर्वसम्पूरिताशः कृतसुकृतविकाशः शत्रुकेतुप्रकाशः । कलितसकलदेशः सोत्सवं गुर्जरेशः स्वपुरमथ नरेशः स्वर्गतुल्यं विवेश ॥१.२.३६ यमक और श्लेष से भाषा में अनावश्यक क्लिष्टता आती है तथा वे रसचर्वणा