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जैन संस्कृत महाकाव्य
इन लक्षणों को छोड़कर कुमारपालचरित में महाकाव्य का कोई अन्य तत्त्व दृष्टिगोचर नहीं होता। काव्य में मुख्यतः कुमारपाल के धार्मिक उत्साह का वर्णन होने के कारण इसके कथानक में अन्विति तथा विकास-क्रम का अभाव है। काव्य के कुछ सर्ग तो एक दूसरे से सर्वथा निरपेक्ष तथा स्वतन्त्र प्रतीत होते हैं। अतः काव्य की कथावस्तु में नाटय-संधियाँ खोजना व्यर्थ है। इसके अतिरिक्त कुमारपालचरित में न वस्तुव्यापार के महाकाव्य-सुलभ मनोरम वर्णन हैं, न समसामयिक युग की चेतना का स्पन्दन है, न प्रकृति-वर्णन की सरसता है। इसकी भाषा-शैली में महाकाव्योचित प्रौढता तथा उदात्तता नहीं है । कुमारपालचरित में वे सभी शाश्वत तत्त्व वर्तमान नहीं हैं, जिनके कारण महाकाव्य अमर पद को प्राप्त करता है। फिर भी इसे महाकाव्य मानना अन्याय्य नहीं क्योंकि दण्डी के शब्दों में कतिपय तत्त्वों के अभाव में किसी रचना का महाकाव्यत्व नष्ट नहीं हो जाता, यदि अन्य तत्त्व पुष्ट तथा समृद्ध हों। कवि ने भी इसे प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में महाकाव्य की संज्ञा दी है-"इति भट्टारकश्रीरत्नसिंहसूरिशिष्योपाध्यायश्रीचारित्रसुन्दरगणिविरचिते श्रीकुमारपालचरिते महाकाव्ये वंशवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः।" कविपरिचय तथा रचनाकाल
काव्यप्रशस्ति में चारित्रसुन्दर ने कुछ आत्मपरिचय दिया है । वृद्धतपोगण के प्रख्यात आचार्य रत्नाकरसूरि ज्ञान के साक्षात् सागर थे। उनके नाम के आधार पर तपोगण ने रत्नाकरगण के नामान्तर से ख्याति प्राप्त की। रत्नाकरसूरि के अनुक्रम में क्रमशः अभय सिंह तथा जयचन्द्र पट्ट पर आसीन हुए। कुमारपालचरित के प्रणेता चारित्रसुन्दर जयचन्द्र के पट्टधर रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे। कुमारपालचरित के इस विवरण की पुष्टि चारित्रसुन्दर के महीपालचरित्र की प्रशस्ति से भी होती है । चारित्रसुन्दर के साहित्य-गुरु सम्भवतः जयमूर्ति पाठक थे, इसका संकेत कुमारपालचरित के निम्नोक्त पद्य से मिलता है।
ये मज्जाड्यतमोऽहरन्निजवचोभाभिः प्रभावांचिता, विश्वोद्योतकरा प्रतापनिकरा दोषापहाः सूर्यवत् । ते मोदं ददताममन्दमुदितानन्दाः सदानन्दनाः
श्रीमच्छीजयमूर्तिपाठकवरा योगीश्वराः सर्वदा ॥ १०.३८
कुमारपालचरित की रचना शुभचन्द्रगणि के अनुरोध पर की गयी थी, इसका २. न्यूनमप्यत्र यः कश्चिदंगैः काव्यं न दुष्यति ।
यापात्तेषु सम्पत्तिराराधयति तद्विदः ॥ काव्यादर्श, १.२० ३. कुमारपालचरित, १०.३५ ४. महीपालचरित्र (पत्राकार), जामनगर, सं० १९८८, प्रशस्ति, ४-६