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कुमारपालचरित : चारित्रसुन्दरगणि
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उल्लेख स्वयं कवि ने किया है।
चक्रे यदभ्यर्थनया पवित्रं चरितमेतन्मया विचित्रम् ।
प्रवर्तिताशेषशुभः स नित्यं जीयाद् गणीशः शुभचन्द्रसंज्ञः॥ १०.३६
कुमारपालचरित का रचनाकाल निश्चित करने का कोई आधारभूत साधन उपलब्ध नहीं है । काव्य भी इस विषय में सर्वथा मौन है। जिन रत्नकोश के अनुसार प्रस्तुत काव्य की रचना सम्वत् १४८७ (सन् १४३०) में हुई थी। जिनरत्नकोश के इस निष्कर्ष का क्या आधार है, यह ज्ञात नहीं।
चारित्रसुन्दर की अन्य कृतियों में शीलदूत, आचारोपदेश तथा महीपालचरित्र प्रसिद्ध हैं। शीलदूत मेघदूत का समस्यापूर्ति-रूप विज्ञप्तिपत्र है। कथानक
कुमारपालचरित दस सर्गों का महाकाव्य है। प्रथम सर्ग में भीमदेव से जयसिंह तक कुमारपाल के पूर्वजों का वर्णन है। दिग्विजय से लौटने पर जयसिंह को जैनाचार्यों की ओर से दशवर्षीय शिशु सोमचन्द्र आशीर्वाद देता है। यही सोमचन्द्र पदाधिरोहण के पश्चात् हेमचन्द्र के नाम से ख्याति प्राप्त करता है । द्वितीय सर्ग में सिद्धराज जयसिंह संतानहीनता से विकल होकर भगवान् शंकर की आराधना करता है। महादेव कुमारपाल को उसका राज्यधर घोषित करते हैं। यह सोचकर कि कुमारपाल के जीवित रहते हुए मुझे पुत्र-प्राप्ति नहीं हो सकती, जयसिंह उसके समूचे परिवार को ध्वस्त करने का षड्यंत्र बनाता है । पहले वह उसके पिता का वध करवा देता है, जिससे भीत होकर कुमारपाल को अपने प्राणों की रक्षा के लिये जगह-जगह असहाय भटकना पड़ता है। तृतीय सर्ग में सिद्ध राज के देहावसान के पश्चात् कुमारपाल के राज्याभिषेक तथा मन्त्रि-पुत्र आम्बड़ एवं कोंकणनरेश मलिकार्जुन के युद्ध का वर्णन है। आम्बड़ चालुक्यनरेश को कोंकणराज का सिर भेंट करता है । चतुर्थ सर्ग में कुमारपाल तथा हेमचन्द्र के सम्पर्क और आचार्य की प्रेरणा से उसके जैनधर्म स्वीकार करने का निरूपण है। वह मांस, मदिरा आदि समस्त दुर्व्यसनों को छोड़ देता है तथा राज्य से भी उन्हें बहिष्कृत कर देता है। पंचम सर्ग में कुमारपाल को जैनधर्म में दीक्षित हुआ सुन कर एक काशीवासी शैव योगी उसे पुन: पैतृक धर्म में प्रवृत्त करने के लिये आता है । वह मन्त्रबल से उसके दिवंगत माता-पिता को प्रकट करता है, जो उसके धर्म परिवर्तन के कारण अपनी दुर्दशा का बखान करते हैं। हेमचन्द्र द्वारा ध्यानशक्ति से पुनः प्रकट किये जाने पर वे देवलोक में अपनी सुखशन्ति का वर्णन करते हैं। मन्त्र-तन्त्र आदि से आचार्य को जीतने में असफल होकर योगी देवबोध ने उन्हें तर्कवाद से पराजित करने का निश्चय किया, किन्तु, छल-बल का प्रयोग करने पर भी, उसे पराजय का ५. जिनरत्नकोश, भाग १, पृ. ६२