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हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि
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से बचना चाहिये । सिद्धान्ततः उचित होते हुए भी व्यवहार में यह सदा सम्भव नहीं है। कालिदास-जैसे रससिद्ध कवियों की भाषा भी अपशब्दों से सर्वथा मुक्त नहीं है। अतः एकाध अपशब्द से काव्यत्व की हानि नहीं होती बशर्ते उसमें अर्थ-सामर्थ्य हो और वह रस की परिपुष्टि कर सके । नयचन्द्र का यह कथन व्यवहार-पुष्ट है । कोई भी दोष स्वरूपतः दोष नहीं होता । जब वह रसानुभूति में बाधक होता है तभी वह दोष बनता है । अतः साधारण दोष के विद्यमान होने पर भी काव्यत्व पर आंच नहीं आती। मम्मट के काव्य-लक्षण में प्रयुक्त 'अदोषौ' पद की खाल उधेड़ने वाले विश्वनाथ (साहित्यदर्पण, पृ० १७) को भी अन्ततः यह मानना पड़ा।
कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता।
दुष्टेष्वपि मता यत्र रसायनुगमः स्फुटः ॥ नयचन्द्र ने काव्यशास्त्र की तीन महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर अपने विचार प्रकट किये हैं । काव्य के स्वरूप तथा भाषा-सम्बन्धी उनके विचार भारतीय काव्यशास्त्र के मान्य सिद्धान्तों के अनुरूप हैं । काव्यहेतु के विषय में उनका मत अस्पष्ट प्रतीत होता है । हम्मीरमहाकाव्य की ऐतिहासिकता
ऐतिहासिक महाकाव्यो की परिपाटी के अनुसार यद्यपि हम्मीरमहाकाव्य में इतिहास को काव्य के आकर्षक परिधान में प्रस्तुत किया गया है और इसका काव्यात्मक मूल्य भी कम नहीं है, किन्तु इसका ऐतिहासिक वृत्त सुसम्बद्ध, प्रामाणिक तथा अलौकिक तत्त्वों से मुक्त है। काव्य के प्रारम्भिक भाग में अवश्य ही कुछ त्रुटियाँ हैं। इसका कारण सम्भवतः यह है कि ये घटनाएँ लेखक से बहुत प्राचीन हैं और इनके सत्यासत्य के परीक्षण के लिये उसे विश्वस्त सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी।
चाहमानवंशीय इतिहास के अन्य विश्वसनीय साधनों से तुलना करने पर ज्ञात होता है कि हम्मीरमहाकाव्य के प्रथम दो सर्गों की वंशावली अनेक त्रुटियों से आक्रान्त है तथा इसमें वणित घटनाएँ भी भ्रामक हैं । उदाहरणार्थ- चक्री जयपाल को अजयमेरु (अजमेर) का संस्थापक मानना इतिहास-विरुद्ध है। इस नगर का निर्माण अजयराज ने सम्वत् ११६६ से कुछ पूर्व किया था। सिंहराज वप्पराज का पुत्र था, पौत्र नहीं । वह पराक्रमी अवश्य था किन्तु काव्य में किया गया उसकी विजय का वर्णन, अत्युक्ति मात्र है। आनल्लदेव (अर्णोराज) ने, जैसा नयचन्द्र ने कहा है, पुष्कर नहीं प्रत्युत आनासागर खुदवाया था। तृतीय सर्ग में वर्णित पृथ्वी६७. प्रायोऽपशब्देन न काव्यहानिः समर्थतार्थे रससेकिमा चेत् । वही, १४-३६ ६८. विस्तृत विवेचन के लिये देखिये—महावीर-जयन्ती-स्मारिका, जयपुर, १९७४ में
प्रकाशित मेरा लेख "नयचन्द्रसूरि के साहित्यिक आदर्श" खण्ड २, पृ. ६३-६६ ६६. हम्मीरमहाकाव्य, १.५२ ७०. वही, १.६०-६७ ७१. वही, २.५१