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हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि
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तात्पर्य 'उक्तिवैचित्र्य' है, जिसमें प्रवीणता कवि की सफलता की कुंजी है । हम्मीरकाव्य की वक्रिमा प्रौढोक्तिमय अलंकारों के रूप में प्रकट हुई है, जिनमें उत्प्रेक्षा अतिशयोक्ति, विरोध तथा अर्थान्तरन्यास विशेष उल्लेखनीय हैं । एक दो उदाहरण पर्याप्त होंगे।
चापस्य यः स्वस्य चकार जीवाकृष्टि रणे क्षेप्तुमनाः शरौघान् । जवेन शत्रून यमराजवेश्मानषीत्तदेतन्महदेव चित्रम् ॥ १.३६
यह श्लेष पर आश्रित विरोधालंकार है। राजा युद्ध में बाण चलाने की इच्छा से इधर अपने धनुष की जीवाकृष्टि करता है और उधर उसके शत्रुओं का जीवाकर्षण अर्थात् प्राणान्त हो जाता है। यह विचित्र बात है कि जीवाकर्षण एक का हो और जीवान्त किसी अन्य का । यह जानते ही विरोध का परिहार हो जाता है कि धनुष के जीवाकर्षण का अर्थ उसकी डोरी को खींचना मात्र है।
यदीयकीर्त्यापहृतां समन्तान् निजां श्रियं स्वर्गधुनी विभाव्य ।
पतत्प्रवाहध्वनिकैतवेन कामं किमद्यापि न फूत्करोति ॥ १.४६
यह अतिशयोक्ति कितनी मनोहर है ? जलप्रपात की ध्वनि को सुनकर उससे यह कल्पना करना कि यह गंगा का मात्सर्ययुक्त फूत्कार है, कवि नयचन्द्र का ही काम है। गंगा को शायद अपनी धवलिमा और स्वच्छता का अत्यन्त गर्व था। चक्री जयपाल की धवल कीति ने गंगा के इस गर्व को चूर कर दिया। बेचारी गंगा फूत्कार न करती तो क्या करती ? अलंकार-विधान
हम्मीरमहाकाव्य रस-प्रधान रचना है। चित्रकाव्य से बाह्य चमत्कार उत्पन्न करना कवि को अभीष्ट नहीं है। अपने इस आदर्श का अनुसरण करते हुए नयचन्द्र ने आडम्बर के लिये अलंकारों का प्रयोग नहीं किया है। हम्मीरमहाकाव्य के अलंकार काव्य-सौन्दर्य को व्यक्त करते हैं तथा भावाभिव्यक्ति को समृद्ध बनाते हैं, और इस प्रकार, वे काव्य के शरीर तथा आत्मा दोनों के सौन्दर्य को वृद्धिगत करने में सहायक हैं । प्रौढोक्तिमय अलंकारों में नयचन्द्र की कुशलता का संकेत किया जा चुका है। नयचन्द्र की उपमाएँ बहुत मार्मिक हैं। गूढोपमा तथा श्लेषोपमा में शायद कोई विरला ही उससे होड़ कर सके । दीक्षित वासुदेव के प्रताप के वर्णन में प्रयुक्त इतनी सुन्दर गूढोपमा साहित्य में कम मिलेगी।
सपत्नसंघातशिरोधिसन्धिच्छेदास कुण्ठतरं निजे यः।
प्रतापवह्नावभिताप्य काममपाययत्तद्रमणीदृगम्बु ॥१.२८
लकड़ी आदि काटने से फरसे के कुन्द हो जाने पर उसे आग में तपा कर ५६. सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते ।
यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना ॥ काव्यालंकार (भामह), १.३६ ६०. पूर्वोद्धृत