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हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि
कामिन्याः कुसुमानि चेतुमधिरोहन्त्यास्तरस्कन्धकं .. भूमौ स्थायिनि दमिने परतले वामे च साखास्पशि। कृत्वा किंचन केतवं विनमितोयनामिमूलं पसे
दृष्ट्वोबीरितकाम अर्ध्वसुरते पाछामतुन्छ बधो ॥ ५.७१. +:
हम्मीरमहाकाव्य का कषि श्रृंगार के आलम्बन विभाव तथा अनुभावों के चित्रण में निपुण है । कामकला का कवि होने के नाते यह उससे अपेक्षित भी था।
अन्य गौण रसों में, हम्मीरमहाकाव्य में, रौद्र, करुण, बीभत्स,अद्भुत, वात्सल्य तथा शान्त रस की भव्य छटा दिखाई देती है । महिमासाहि जगरा पर आक्रमण करके पीथमसिंह को परिच्छद सहित बन्दी बना लेता है। भोज के मुख से उसकी दुर्दशा सुन कर अलाउद्दीन कोष से पागल हो जाता है और हम्मीर को तत्काल दण्डित करने की प्रतिज्ञा करता है। उसके क्रोषावेश के चित्रण में रोदरस की मामिक व्यंजना हुई है।
तद्वाक्यश्रवणादथ प्रसृमरक्रोधप्रकम्पाधरो बाहुष्टम्मनमासनं प्रतिलगं सव्यापसव्ये नयन् । प्रत्युक्षिप्प शिरोवतंसमगनीपीठे तथास्फालयन्
चक्र काव्यपरम्परामिति तदा म्लेच्छाननीवल्लभः ॥ १०.७६.
हम्मीरकाव्य में करुणरस का भी सजीव चित्रण हुआ है। करुणरस के परिपाक के लिये काव्य में अनेक अवसर हैं। पिता जैत्रसिंह की मृत्यु पर हम्मीर के विलाप, पुत्री देवल्लदेवी को जौहर के लिये विदा करते समय उसके ऋन्दन, महिमासाहि के परिवार को खून की नदी में तैरता देख कर उसकी मूर्छा तथा हम्मीर के प्राणोत्सर्ग से व्याप्त सार्वजनिक शोक की अभिव्यक्ति में करुणरस की वेमवती धारा प्रवाहित है। कालिदासोत्तर साहित्य में उनकी करुणा की व्यंजनात्मक मार्मिकता दुर्लभ है। अधिकांश कवियों ने, भवभूति को आदर्श मान कर बोकतप्त व्यक्ति के क्रन्दन में ही करुणरस की सार्थकता मानी है। हम्मीरमहाकाव्य में भी करुणरस के चित्रण में यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है, यद्यपि उसमें अपनी तीव्रता के कारण हृदय की गहराई में पैठने की क्षमता है । हम्मीरकाव्य में करुणरस की सबसे मार्मिक अभिव्यक्ति कदाचित् हम्मीर के बलिदान से उत्पन्न शोक के निरूपक * इसी श्रेणी के भंगार के कुछ अन्य चित्र भी वर्शनीय हैं
मम मुख-विधोरपि दर्शनात् तव दृशौ कुमुदे अपि मौलितः । किमिदमित्यपरा शयनोन्मुखं स्तनघटेन जघान हि तं मुहुः॥ वही, ७.८५ सम्भोगकेलि प्रविधाय पश्चात् सुप्तापि नारी प्रथमप्रबुद्धा। आलिंग्य सुप्तं प्रियसुप्तिमंग विशंकमाना न जहाति तल्पम् ॥ वही, ८.१३
किन्तु विलासिता का यह अमर्यादित चित्रण काव्य-धर्म का निर्वाह मात्र है। निवृत्तिवादी धार्मिक भावना के प्रबल होते ही कवि को नारी 'मूत्र और पुरीष का पात्र' प्रतीत होने लगती है-स्त्रीणां तथा मूत्रपुरीषपात्रे गात्रे (.४४)