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हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि
प्रकृति-वर्णन की तत्कालीन परम्परा के अनुरूप हम्मीरमहाकाव्य में प्रकृति का स्वाभाविक रूप बहुत कम दिखाई देता है । जिन्हें प्रकृति के स्वाभाविक चित्र: कहा जा सकता है, वे भी आलंकारिकता से इस तरह आक्रान्त हैं कि उनकी यत्किंचित् सहजता कलात्मकता में दब गयी है । किन्तु नयचन्द्र के प्रकृति के अलंकृत वर्णनों का सौन्दर्य दर्शनीय है। उसकी भाषा की धीरता, कल्पना की उर्वरता तथा अप्रस्तुतविधान की निपुणता इन चित्रों को और आकर्षक बना देती है। अस्तगामी सूर्य के बिम्ब का एक भाग पश्चिम सागर में डूब गया है, शेषांश की लालिमा से गगन दीपित है। इस मनोहर दृश्य को देखकर भ्रम होता है कि शेषशायी भगवान् विष्णु ने अपनी प्रिया सिन्धुकन्या के एक कुच को अपने हाथ से ढक लिया है, दूसरे की आभा सूर्य की द्युति के रूप में आकाश में फैली हुई है।
जलशयेशशयाम्बुजनित तैककुचसिंधुसुतोरसिजभ्रमम् ।
प्रवितरज्जगतां जलधेर्जले शकलमग्नमभाद् रविमण्डलम् ॥७.५ सन्ध्या के समय चकवा अपनी प्रिया के साथ कमलनाल का आनन्द ले रहा था। सहसा रात हो गयी। प्रिया के वियोग से वह भौचक्का रह गया । उसकी चोंच में मृणाल-खण्ड ज्यों का त्यों रह गया । वह बिसलता ऐसी प्रतीत होती थी मानो विरह में प्राणों को निकलने से रोकने के लिए अर्गला हो। उत्प्रेक्षा ने इस कविप्रौढि को चमत्कृत कर दिया है।
निशि वियोगवतः पततः स्थिता बिसलता चलचञ्चुपुटे बभौ । __ असुगणं वनिताविरहाद् विनिजिगमिषु विनिरोद्ध मिवार्गला ॥७.१३
चन्द्रोदय का यह कल्पनापूर्ण चित्र भी कम आकर्षक नहीं है। नयचन्द्र रात्रि में तारों के छिटकने का कारण ढूंढने चले हैं। उनका विश्वास है कि चन्द्रमा चिर विरह के पश्चात् अपनी प्रिया से मिला है। उसने उत्कण्ठावश प्रिया का ऐसा गाढालिंगन किया कि उसका मौक्तिक-हार टूट कर बिखर गया है। हार के वही मोती आकाश में तारे बन कर फैल गये हैं।
चिरभवन्मिलनादुपगूहनं द्विजपतावदयं ददति श्रियः ।
त्रुटति हारलता स्म समुत्पतद्विविधमौक्तिकतारकिताम्बरा ॥७.२६ पावसवर्णन का प्रसंग भी कविकल्पना से तरलित है। अविराम वृष्टि से ताल-तलैया ने समुद्र का रूप धारण कर लिया है । उत्प्रेक्षा के द्वारा कवि ने इसका कारण खोजने की चेष्टा की है। प्रतीत होता है कि मेघमाला जल के भार का वहन नहीं कर सकी। उसके बोझ से फटकर वह धरा पर गिर गयी है।
दधत्यम्बुनिधेः स्पर्धा सरांसीह रराजिरे। त्रुटित्वा वारिभारेणाभ्राणीव पतितान्यधः ॥१३.५६