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जैन संस्कृत महाकाव्य
हम्मीर धर्मपरायण व्यक्ति है । उसके विचार में दुर्लभ मानवजीवन की सार्थकता धर्माचरण तथा यशप्राप्ति में निहित है और इनकी प्राप्ति कुलाचार के परिपालन से होती है । याज्ञिक अनुष्ठान, दान-दक्षिणा आदि धर्म के बाह्य आचारां में उसकी पूर्ण आस्था है । दिग्विजय से लौटकर वह कोटिहोम का अनुष्ठान करता है, आत्मशुद्धि के लिये एक मास तक मुनिव्रत धारण करता है और ब्राह्मणों तथा याचकों को इस उदारता से दान देता है कि दरिद्रता याचकों को छोड़कर उसके पास आ गयी । 'नोत्तमानां हि चित्ते स्वपरकल्पना' उसकी धार्मिक सहिष्णुता का पावन घोष
हम्मीर राजपूती शौर्य का आदर्श प्रतीक है । उसका रणकौशल तथा बाहुबल दिग्विजय के अन्तर्गत विविध अभियानों से स्पष्ट है । भोजदेव हम्मीर को भले ही छोड़ गया हो, उसकी वीरता से वह भली-भाँति परिचित है तथा अलाउद्दीन के समक्ष वह उसका सविस्तार बखान करता है। उसे विश्वास है कि हम्मीर को समरांगण में पराजित करना अतीव दुष्कर है। ‘स श्रीहम्मीरवीर: समरभुवि कथं जीयते लीलपैव' उसकी हम्मीर-विषयक प्रशंसात्मक उक्तियों का सार है। अलाउद्दीन भी उसकी वीरता की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। वीर होने के नाते हम्मीर वीरता का सम्मान करना भी जानता है। वह रतिपाल के शौर्य का उसके पैरों में स्वर्णशृंखला पहना कर अभिनन्दन करता है।
शरणागतवात्सल्य हम्मीरदेव के व्यक्तित्व की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है । वह मुग़ल-बन्धुओं को सहर्ष आश्रय देता है । यद्यपि यह अलाउद्दीन के साथ युद्ध का तात्कालिक कारण बना, किन्तु उसने उन्हें यवनशासक की बर्बरता से बचा कर क्षात्र धर्म का निर्वाह किया। वह यवन-दूत को स्पष्ट कह देता है कि महिमासाहि के समर्पण की मांग करने वाला तेरा स्वामी मूढ़ है । अन्तिम युद्ध से पूर्व जब वह चारों ओर से निराश हो जाता है, उस गाढ़े समय में भी वह शरणागत महिमासाहि की सुरक्षा की व्यवस्था करना अपना कर्तव्य समझता है । वस्तुत: उनके लिये हम्मीर, पुत्र, कलत्र आदि अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है । कवि ने उसके इस अनुपम त्याग का कृतज्ञतापूर्वक गौरवगान किया है-आत्मा पुत्रकलत्रभृत्यनिवहो नीतः कथाशेषताम् (१४.१७) । इन गुणों तथा कुशल प्रशासन के कारण उसके राज्य में में चतुर्दिक सुख, शान्ति, नीति तथा धर्म का बोल बाला है। ४४. वही, १३.१२५ ४५. तान् विहायोच्चकैतिनुपास्थित यथाऽथिता । वही, ६.६५ ४६. वही, ११.६७ ४७. वही, ८.६८