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जैन संस्कृत महाकाव्य
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इस पद्य में हुई है।
लोको मूढतम्रा प्रजल्पतुतमां यच्चाहमानः प्रभुः श्रीहम्मीरनरेश्वरः स्वरगभद् विश्वंक्रसाधारणः । तत्वज्ञत्वमुपेत्य किचन वयं व मस्तमांस क्षितौजीवनमेव विलोक्यते प्रतिपदं संस्तनिर्मिः ॥ १४.१५ पिता के निधन से संतप्त हम्मीर को धीरज बंधाने वाली बीजादित्य की युक्तियाँ शान्तरस से परिपूर्ण हैं। बीजादित्य ने जीवन की नश्वरता तथा भौतिक पदार्थों की अस्थिरता को रेखांकित करके हम्मीर के शोक को दूर करने का प्रयत्न किया है । शरीर की बावड़ी में प्राण के हंस का कलरव शाश्वत नही हैं । काल के रहद की घटिकाएँ आयु के जल को धीरे-धीरे किन्तु अविराम रीतती रहती हैं"।
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arat करिष्यति कियच्चिरमेव हंसः स्निग्धोल्लसत्कलरवोऽत्र शरीरवाप्याम् । कालारघट्टघटिकावलिपीयमान
मायुर्जलं झगिति शोषमुपैति यस्मात् ॥८. १२७
इस प्रकार हम्मीरमहाकाव्य में विविध रसों की चर्वणा के लिये पर्याप्त सामग्री वर्तमान है । वस्तुतः नयचन्द्र की कविता प्रपानकरस का आनन्द देती है । जयहंस के शब्दों में हम्मीरमहाकाव्य रस का अक्षय भण्डार है- नयचन्द्रकवेः काव्यं रसायनमिहाद्भुतम् ( शिष्यकृता प्रशस्तिः, ३)
प्रकृति-चित्रण
हम्मीरमहाकव्य के ऐतिहासिक इतिवृत्त की मरुभूमि में नयचन्द्र ने स्थान • स्थान पर प्रकृति के मनोरम उद्यानों का रोपण किया है। पांचवें, छठे, सातवें, तथा तेरहवें सर्गों के कुछ भागों में बसन्त, सूर्यास्त, रात्रि, चन्द्रोदय, प्रभात तथा वर्षा के हृदयग्राही चित्र अंकित करके पाठक की क्लान्ति मेटने का सफल प्रयत्न किया गया है । ये वर्णन कवि के प्रगाढ़ प्रकृति - प्रेम के परिचायक हैं । प्रकृति के प्रति नयचन्द्र का दृष्टिकोण अधिकतर रूढिवादी है । कालिदास के पश्चात् प्रकृति-चित्रण में नयी शैली का सूत्रपात होता है । प्रकृति सहज आलम्बन - पक्ष के स्थान पर विविध प्रसाधनों के द्वारा उसका कलात्मक रूप अंकित करने में काव्यकला की सार्थकता मानी जाने लगी । नयचन्द्र को इसी परम्परा की याती प्राप्त हुई है। फलतः हम्मीरमहाकाव्य में प्रकृति के आलम्बन पक्ष के प्रति कवि का अनुराग दृष्टिगत नहीं होता । इसमें बहुधा कलात्मक प्रणाली से प्रकृति का चित्रण किया गया है। नयचन्द्र के अधिकांश प्रकृति-वर्णन अप्रस्तुतविधान पर आधारित हैं । कवि के अप्रस्तुतविधान के क़ीमल के कारण उसका प्रकृतिवर्णन सरसता से सिक्त है । इस दृष्टि से सूर्यास्त तथा वर्षा ऋतु के वर्णन विशेष उल्लेखनीय हैं ।