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जैन संस्कृत महाकाव्य १३८२ से १४२२. ई० तक स्वीकार किया जा सकता है। नयचन्द्र का वीरम: से सम्पर्क उसके राज्य के मध्यकाल में हुआ था, जब उसकी काव्यकला की ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। अतः हम्मीरकाव्य का रचनाकाल १४०० ई० के आस-पास मानना सर्वथा न्यायोचित होगा। उस समय नयचन्द्र की प्रज्ञा पूर्णतया परिणत : हो चुकी थी, जो हम्मीरकाव्य की प्रौढता में प्रतिबिम्बित है। हम्मीर की मृत्यु को (सन् १३०१) तब लगभग सौ वर्ष हो चुके थे। हम्मीर-चरित का प्रणयन करने की बलवती लालसा नयचन्द्र को दिन-रात मथ ही रही थी। आश्चर्य नहीं यदि उसने हम्मीरदेव की शतवार्षिक पुण्यतिथि पर प्रस्तुत काव्य से उनका साहित्यिक तर्पण किया हो । यदि यह अनुमान ठीक है, तो पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथम वर्ष, सन् १४०१, को हम्मीरकाव्य का रचनाकाल माना जा सकता है। खरतरगच्छीय जैन भण्डार, कोटा से प्राप्त, काव्य की सम्वत् १४८६ (सन् १४२६) में लिखित प्राचीनतम प्रति से भी, प्रकारान्तर से, उक्त निष्कर्ष की पुष्टि होती है। मुनि जिनविजयजी ने कीर्तने वाली प्रति की पुष्पिका में उल्लिखित", काव्य के लिपिकाल, सम्बत् १५४२ को सं० १४५२ के लिए . भूल मानकर हम्मीरकाव्य को सम्वत् १४५२ में रचित मानने की कल्पना की है। उनके विचार में काव्य के लिपिकर्ता नयहंस का सम्वत् १५४२ में होना संभव नहीं क्योंकि वे जयसिंहसूरि के शिष्य थे, जो सं० १४२२ में विद्यमान थे। उसी वर्ष नयचन्द्र ने उनके कुमारपालचरित का प्रथम आदर्श किया था। परन्तु कृष्णर्षिगच्छ में जयसिंहसूरि नामक एक अन्य आचार्य हुए हैं, ग्रह सम्वत् १५३२ में रचित उनके प्रतिमालेख से निश्चित है। नयहंस इन्हीं जयसिंह के शिष्य थे। कुमारपालचरितकाव्य के लेखक जयसिंह उनसे सर्वथा भिन्न हैं । एक गच्छ में समान नामधारी आचार्यों की आवृत्ति सुविदित है।" अतः जयसिंह-सूरि के शिष्य नयहंस का सं० १५४२ में विद्यमान.. होना सर्वथा संभव है। इस प्रकार सं० १४५२ को हम्मीरकाव्य का रचनाकाल मानने का मूलाधार ही. ढह जाता है।
९. तेने तेनैव राज्ञा स्वचरिततनने स्वप्ननुन्नेन कामम् । हम्मीरमहाकाव्य, १४।२६. १०. डा० फतहसिंह : हम्मीरमहाकाव्य-एक पर्यालोचन, पृ० २८ । ११. सम्वत् १५४२ वर्षे श्रावणे मासि श्रीकृष्णर्षिगच्छे श्रीजयसिंहसूरिशिष्येण
नयहंसेनात्मपठनार्थ श्री पेरोजपुरे हम्मीरमहाकाव्यं लिलिखे । १२. मुनि जिनविजय : संचालकीया वक्तव्य, हम्मीरमहाकाव्य, पृ० ३ । १३. श्री अगरचन्दमाहटा नपचनसूरिकताकुम्भकर्ष विक्रमवर्णननां काव्यो, स्वाध्याय,
१४.३, पृ० २५२ (अनुवादक जयन्त ठाकुर)।