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जैन संस्कृत महाकाव्य
बियासमुनीन्यूनां (१७६०) प्रमाणात् परिवत्तरे। .... हुतोऽयमुधमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः ॥३॥
अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों की रचना होने के नाते, इसे सामान्यतः बालोच्य युग के महाकाव्यों में स्थान देना उचित नहीं है। मेघविजय का स्थितिकाल सतरहवीं शताब्दी है। उनकी अन्य सभी रचनाएं सतरहवीं शती में ही प्रणीत हुई । सप्तसंधान उनकी जीवन की सन्ध्या की कृति है । कथानक
. सप्तसंधान नौ सर्गों का महाकाव्य है, जिसमें पूर्वोक्त सात महापुरुषों के जीवन चरित एक साथ अनुस्यूत हैं । बहुधा श्लेष-विधि से वर्णित होने के कारण जीवनवृत्त का इस प्रकार गुम्फन हुआ है कि विभिन्न नायकों के चरित को अलग करना कठिन है । अतः कथानक का सामान्य सार देकर यहाँ सातों महापुरुषों के जीवन की प्रमुख घटनाएँ पृथक्-पृथक् दी जा रही हैं। - अवतारवर्णन नामक प्रथम सर्ग में, मंगलाचरण आदि रूढियों के पश्चात् भारतवर्ष, चरितनायकों के पिताओं', मध्यदेशमें स्थित उनकी राजधानियों, लोकोपयोगी शासन-व्यवस्था - माताओं के स्वप्रर्शन, देवच्यवन तथा गर्मधारण° का वर्णन है। द्वितीय सर्ग में देवांगनाओं द्वारा गर्भिणी माताओं की सेवा तथा चरितनायकों का जन्म", रक्षामंगल आदि वर्णित है । उनके धरा पर अवतीर्ण होते ही समस्त रोग शान्त हो जाते हैं तथा प्रजा का अभ्युदय होता है। तृतीय सर्ग में नवजात शिशुओं के जन्माभिषेक, नामकरण और कालान्तर में उनके विद्याध्ययन, विवाह तथा शासन का निरूपण किया गया है। उनके शासन के प्रभाव से सर्वत्र शान्ति तथा समृद्धि की प्रतिष्ठा हुई और अनीति, दुर्व्यसन, दरिद्रता, अज्ञान आदि दुर्गुण तत्काल विलीन हो
६. ऋषभदेव : नाभि, शान्तिनाथ : विश्वसेन, नेमिनाथ : समुद्रविजय, पार्श्वनाथ : ___ अश्वसेन, महावीर : सिद्धार्थ, राम : दशरथ, कृष्ण : वासुदेव (सप्तसंधान, १.५४) ७. नाभि तथा दशरथ : अयोध्या, विश्वसेन : हस्तिनापुर, समुद्रविजय : शौर्यपुर,
अश्वसेन : वाराणसी, सिद्धार्थ : ब्राह्मण्डकुण्ड, वसुदेव : मथुरा (१.३६) ८. लोकस्य कस्यापि न दुःखलेश : क्लेश : कुतोऽन्योन्ययुधायुधानाम् । वही, १.५६ ९. ऋषभ : मरुदेवी, शान्तिनाथ : अचिरा, नेमिनाथ : शिवा, पाव : वामा, राम :
कौशल्या, कृष्ण : देवकी (वही, १.६१), महावीर : त्रिशला (१.६५) . १०. तत्रावतीर्णस्त्रिदशावतारी सुर : प्रभाभासुर एव कश्चित् । .
आपन्नसत्त्वा मणिनेव भूमि राजी विरेजे गरभाऽनुभावात् ॥ वही, १.७६ ११. मृगेऽगसारेऽकविदो : प्रभादौ कर्मोदये देवगुरो : सुधांशो । . शनेस्तुलाभेवुषमे सुकाव्ये तमोव्ययेऽभून्जिनदेवजन्म ॥ वही, २.१५