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सप्तसन्धानमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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गये । पूज्यराज्यवर्णन नामक चतुर्थ सर्ग के प्रथम चौदह पचों में मुख्यतः आदिप्रभु के राज्याभिषेक के लिये देवताओं के आगमन, ऋषभदेव की सन्तानोत्पत्ति तथा उनकी प्रजा की सुख-समृद्धि का वर्णन है । अगले सोलह पद्यों का प्रमुख विषय कृष्णचरित है, जिसके अन्तर्गत कौरव-पाण्डवों के वर, छूतक्रीडा, द्रौपदी के चीरहरण, केशकर्षण, द्वैतवन में कीचक के द्रौपदी के प्रति प्रणय-प्रस्ताव तथा दीक्षाग्रहण आदि की चर्चा है। सर्ग के शेषांश में तीर्थंकरों द्वारा राज्यत्याग तथा प्रव्रज्या ग्रहण करने का वर्णन किया गया है। पंचम सर्ग में, काव्य में वर्णित पांच तीर्थंकरों के विहार, तपश्चर्या, पारणा तथा उपसर्ग-सहन का वर्णन है। अनेक प्राकृतिक तथा भौतिक कष्ट सह कर वे तप से कर्मों का क्षय करते हैं । छठे सर्ग में जिनेन्द्र कर्मक्षय तथा तपश्चर्या से कैवल्यज्ञान५ प्राप्त करके स्याद्वाद पद्धति से उपदेश देते हैं। उनकी देशना से धरा विकृति से मुक्त, पुण्यप्रवृत्ति से युक्त तथा सत्कीत्ति से धवलित हो गयी। सातवें सर्ग में छह परम्परागत ऋतुओं का वर्णन है। तीर्थंकरों की समवसरण में भावी चक्रवर्ती भरत, अन्य राजाओं के साथ उनकी सेवा में उपस्थित होते हैं । दिग्विजयवर्णन नामक अष्टम सर्ग में ऋषभदेव के पुत्र भरत की दिग्विजय, तीर्थंकरों के सांवत्सरिक दान तथा मोक्षप्राप्ति का वर्णन है। नवें सर्ग में मुख्यतः जिनेश्वरों के गणधरों की परम्परा का वर्णन है। इस प्रसंग में राम तथा कृष्ण के चरित से सम्बन्धित कतिपय घटनाओं को भी समेटा गया है।
___ इस प्रकार काव्य में सामान्यतया सातों नायकों के माता-पिता, राजधानी, माताओं के स्वप्नदर्शन, गर्भाधान, दोहद, कुमारजन्म, बालक्रीड़ा, विवाह, राज्याभिषेक आदि घटनाओं तथा पांच तीर्थंकरों की लोकान्तिक देवों की अभ्यर्थना, सांवत्सरिक दान, दीक्षा, तपश्चर्या, पारणा, केवलज्ञानप्राप्ति, समवसरण-रचना, देशना, निर्वाण, गणधर आदि प्रसंगों का वर्णन है। विभिन्न महापुरुषों के जीवन की जिन विशिष्ट घटनाओं का निरूपण काव्य में हुआ है, वे इस प्रकार हैं।
आदिनाथ .. भरत को राज्य देना (४।३४), नमि-विनमिकृत सेवा, धरणेन्द्र द्वारा उन्हें
१२. वही, ३.४० १३. कान्तावरिष्ठवचसा भरते न्यधायि
स्वाप्ताग्रजन्मनि परे वनवासवृत्तिः। वही, ४.३४ १४. एवं भावनया देवश्छेत्तुं मोहमहाद्रुमम् ।
समारुह्य गुणस्थानमारेभे क्षपकोद्यमम् ॥ वही, ६.६ १५. प्राप्तः पूरिमतालाख्यसख्योपवनधारणाम् ।
कांचनाद्रिक्रियामाधत् समाधानोपदेशतः॥ वही, ६.२५ १६. स्वामी जगाद स्याद्वादपद्धत्या मधुरं वचः । वही, ६.२७