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जैन संस्कृत महाकाव्य
ऋवि को शाब्दी खिलवाड़ का अबाध अवकाश मिला है, जो प्रस्तुत काव्य का साध्य है। किन्तु सप्तसंधान में शब्दालंकारों के अतिरिक्त प्रायः सभी मुख्य अर्थालंकार प्रयुक्त हुए हैं। यह अलंकार-बाहुल्य कवि की साहित्यशास्त्र-विशारदता को धोतित करता है। कतिपय अलंकारों के उदाहरण अप्रासंगिक न होंगे। . कुमार-वर्णन के प्रस्तुत पद्य में अप्रस्तुत वटवृक्ष की प्रकृति से प्रस्तुत कुमार के गुण व्यंग्य होने से अप्रस्तुतप्रशंसा' है।
नम्रीभवेत् सविटपोऽपि वटो जनन्यां भूमी लतापरिवृतो निभृतः फलाद्यः। कोलीनतामुपनतां निगवत्ययं किं सम्यग्गुरोविनय एव महत्त्वहेतुः ॥ ३.१६
निम्नोक्त पद्य में चरितनायकों के जन्म से प्रजा की सुख-शान्ति का निरूपण है । अप्रस्तुत आरोग्य, भाग्य तथा अभ्युदय का यहां एक 'आविर्भाव धर्म से सम्बन्ध है । अत: इसमें तुल्ययोगिता अलंकार है।
आरोग्यभाग्याभ्युदया जनानां प्रादुर्बभूवुर्विगतेजनानाम् ।
वेशाविशेषान्मुदिताननानां प्रफल्लभावात् भुवि काननानाम् ॥२.१३ वसन्त वर्णन की प्रस्तुत पंक्तियों में 'दीपक' की अवतारणा हुई है क्योंकि यहां प्रस्तुत चन्द्रमा तथा अप्रस्तुत राजा का एक समान धर्म से सम्बन्ध है।
व्यर्था सपक्षरुचिरम्बुजसन्धिबन्धे राज्ञो न दर्शनमिहास्तगतिश्च मित्र। किं किं करोति न मधुव्यसनं च देवादस्माद् विचार्य कुरु सज्जन तन्निवृत्तिम् ॥
जिनेन्द्रों की कीत्ति को रूपवती देवांगनाओं से भी अधिक मनोरम बताने के कारण प्रस्तुत पद्य में अतिशयोक्ति अलंकार है।
मनोरमा वा रतिमालिका वा रम्भापि सा रूपवती प्रिया स्यात् । न सुत्यजा स्याद् वनमालिकापि कीर्तिविभोर्यत्र सुरैनिपेया ॥६.६
दुर्जन निन्दा के इस पद्य में आपाततः दुर्जन की स्तुति की गयी है, किंतु वास्तव में इस वाच्य स्तुति से निंदा व्यंग्य है । अत: यहां व्याजस्तुति है।
मुखेन दोषाकरवत् समानः सदा-सदम्भः सवने सशौचः। काव्येषु सद्भावनया न मूढः किं वन्द्यते सज्जनवन्त नीचः ॥ १.५
इस समासोक्ति में प्रस्तुत अग्नि पर अप्रस्तुत क्रोधी व्यक्ति के व्यवहार का आरोप किया गया है।
तेजो वहन्नसहनो दहनः स्वजन्महेतून् ददाह तृणपुजनिकुंजमुख्यान् । लेभे फलं त्वविकलं तदयं कुनीते स्मावशेषतनुरेष ततः कृशानुः ॥ ३.२०
काव्य में प्रयुक्त अन्य अलंकारों में अर्थान्तरन्यास (५.६), विरोधाभास (१. ३८), परिसंख्या (३.४१), उदात्त (२.८), अर्थापत्ति (२.१४), विशेषोक्ति (२.३७), निदर्शना, (१.६८), अतद्गुण (३.४४), दृष्टांत (३.२४, १.८) तथा