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जैन संस्कृत महाकाव्य
ऋषिरिख परक्षेत्र सेवे कृषीवलपुंगव
____श्चपलसबलं भीत्या जज्ञे बलं च पलाशजम् ॥७.२६
वसन्त के मादक वातावरण में मद्यपान का परित्याग करने का उपदेश देते समय जैन यति की पवित्रतावादी प्रवृत्ति प्रबल हो उठी है। किन्तु उसका यह उपदेश भी श्लेष के परिधान में प्रच्छन्न है (७-८)। स-योजना
सप्तसन्धान में मनोरागों का रसात्मक चित्रण नहीं हुआ है। चित्रकाव्य में इसके लिए अवसर भी नहीं है । जब कवि अपनी रचना-चातुरी प्रदर्शित करने में ही व्यस्त हो, तो मानव-मन की सूक्ष्म-गहन क्रियाओं-विक्रियाओं का अध्ययन एवं उनका विश्लेषण करने का अवकाश उसे कैसे मिल सकता है ? अतः काव्य में किसी भी रस का अंगीरस के रूप में परिपाक नहीं हुआ है। मेघविजय के अन्य दो महाकाव्यों की भी, रस की दृष्टि से, यही शोचनीय स्थिति है। सप्तसन्धान की प्रकृति को देखते हुए इसमें शान्तरस की मुख्यता मानी जा सकती है, यद्यपि जिनेन्द्रों के धर्मोपदेशों में भी यह अधिक नहीं उभर सका है । तीर्थकर की प्रस्तुत देशना में शान्तरस के विभावों तथा अनुभावों की हल्की-सी रेखा दिखाई देती है। त्यजत मनुजा राणं द्वेषं पति दृढसज्जने
भजत सततं धर्म यस्यादजिह्मगतारुचिः। प्रकुरुत गुणारोपं पापं पराकुरुताचिराद्
- मतिरतितरां न व्याधेया परव्यसनादिषु ॥५.४६ काव्य में यद्यपि भरत की दिविजय तथा राम एवं कृष्ण के युद्धों का वर्णन है किन्तु उसमें वीर रस की सफल अभिव्यक्ति नहीं हो सकी है । कुछ पद्यों के राम तथा कृष्ण पक्ष के अर्थ में वीर रस का उद्रेक हुआ है । इस दृष्टि से यह युद्ध चित्र दर्शनीय है।
तत्राप्तदानवबलस्य बलारिरेष न्यायान्तरायकरणं रणतो निवार्य । धात्री जिघृक्षु शिशुपालराक्षसादिदुर्योधनं यवनभूपमपाचकार ॥३.३०
तृतीय सर्ग में सुमेरु-वर्णन के अन्तर्गत देवदम्पतियों के विहारवर्णन में सम्भोग शृंगार की मार्मिक अवतारणा हुई है।
गोपाः स्फुरन्ति कुसुमायुधचापरोपात् कोपादिवाम्बुजदृशः कृतमानलोपा । क्रीडन्ति लोलनयनानयनाच्च दोलास्वान्दोलनेन बिबुधाश्च सुधाशनेन ॥३.४
जिनमाताओं की कुक्षि में देव के अवतरण में अद्भुत रस (१.७६) और कृष्ण के शव को उठा कर बलराम के असहाय भ्रमण में करुण रस (६-१६) की छटा है। अलंकार-वधान
चित्रकाव्य होने के नाते सप्तसन्धान में चित्र-शैली के प्रमुख उपकरण अलंकारों की निर्बाध योजना की गयी है, किन्तु यह ज्ञातव्य है कि काव्य में अलंकार भावानु