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जैन संस्कृत महाकाव्य
शब्दों को कैसे तोड़ा-मरोड़ा गया है और सुविज्ञात पदों के क्या अकल्पनीय अर्थ किये गये हैं, इसका आभास टीका के निम्नोक्त अंश से भली भाँति हो जाएगा। . . - हरेजिनेन्द्रस्य भुजे भोग्यकर्मणि तनुजे अल्पीभूते सवितृतनये प्रकाशविस्तारके जिनेन्द्र रामे आत्मध्याने आसक्ते परे अत्युत्कृष्टे मोक्षे इत्यर्थः दौत्ये दूतकर्मणि प्रसरति घ्यानमेव मोक्षाय दूतकर्मकृदिति भाव: दित्याः सुताः कामादयः भयभंगुराः भयभीता जाताः। विभीषणकायातः भयोत्पादककायोत्सर्गविधायकशरीरात् जिनेन्द्रात लोभक्षोभात् लोभस्य तद्विषयकजयाशारूपस्य क्षोभात् आघातात् जयाशात्यागात् प्रत्युत निजपराजयभीते: श्रुतिगत: महानादा भयादेव महाशब्दकारका दीर्घविराविणः रणविरणं जिनेन्द्रतो विग्रहनिवर्तनं निजमग्रजमग्रेसरं देवं द्योतनात्मकं मोहराजं जगुः निवेदयामासुः।
प्रस्तुत पद्य में केवलज्ञानप्राप्ति के पश्चात् जिनेश्वर का वर्णन है । आपाततः केवल राम पक्ष से सम्बन्धित प्रतीत होने वाले पद्य में यह अर्थ कैसे सम्भव है, इसका ज्ञान टीका के बिना नहीं हो सकता।
सुमित्रांगजसंगत्या सदशाननभासुरः। अलिमुक्तेर्दानकार्यसारोऽभाल्लक्ष्मणाषिपः ॥ ६.५७
सुमित्रं सुष्ठ मेद्यति स्निह्यतीति केवलज्ञानं तदेवांगजं तस्य संगत्या केवलज्ञानयोगेन दशाननभासुर: दशसु दिक्षु आननं मुखमुपदेशकाले यस्य स दशाननस्तेन भासुरः लक्ष्मणाधिपः लक्ष्म चिह्नमेव लक्ष्मणं तत् अधिपाति स्वसंगेन धारयतीति लक्ष्मणाधिपः अलिमुक्तेः अलेः सुराया मुक्तेस्त्यागात् दानकार्यसार: दानकार्यमुपदेशनमेव सारो यस्य स अभात् ।।
किन्तु यह सप्तसन्धान का एक पक्ष है। इसके कुछ अंश भाषायी जादूगरी से सर्वथा मुक्त हैं। माताओं की गर्भावस्था, दोहद, कुमार-जन्म तथा गणधरों के वर्णन की भाषा प्राञ्जलता, लालित्य तथा माधुर्य से ओतप्रोत है। दिक्कुमारियों के कार्यकलाप का निरूपण अतीव सरल भाषा में हुआ है।
काश्चिद् भुवः शोधनमादधाना जलानि पुर्यां ववषुः सपुष्पम् । छत्रं दधुः कान्चन चामरेण तं वीजयन्ति स्म शुचिस्मितास्याः॥२.२१
नवें सर्ग की सरलता तो वेदना-निग्रह रस का काम देती है । काव्य के पूर्वोक्त भाग की क्लिष्टता से जूझने के पश्चात् नवें सर्ग की सरल-सुबोध कविता को पढ़कर मस्तिष्क की तनी हुई नसों को स्पृहणीय विश्राम मिलता है।
सुवर्णवर्ण गजराजगामिनं प्रलम्बबाहुं सुविशाललोचनम्।
नरामरेन्द्रः स्तुतपादपंकजं नमामि भक्त्या वृषभं जिनोत्तमम् ॥ ६.३० प्रकृति-चित्रण
भावपक्ष का दारिद्रय चित्र-काव्य का सौन्दर्य है। अतः चित्रकाव्य में उन प्रसंगों के लिये स्थान नहीं है, जिनमें भावों की ऊष्मता प्रकट होती हो । सप्तसंधान