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जैन संस्कृत महाकाव्य
काव्य में हुआ है। सपत्नियों के षड्यन्त्र के कारण राम को सीता की सच्चरित्रता पर सन्देह हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वे उस गभिणी को राज्य से निष्कासित कर देते हैं (९.१२) । राम के सुविज्ञात पुत्रों, कुश और लव का स्थान यहाँ अनंगलवण तथा मदनांकुश ने ले लिया है। (द. १३) । जैन रामायण के अनुरूप ही राम शत्रंजय की यात्रा करते हैं तथा प्रव्रज्या ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
काव्य में निरूपित जिनेश्वरों का चरित भी क्रमभंग से मुक्त नहीं है। उदाहरणार्थ, ३२४ में तीर्थंकरों के विद्याध्ययन के उल्लेख से पूर्व ३/२२ में उनकी पत्नियों का नामोल्लेख आश्चर्यजनक है। इसी प्रकार उनके द्वारा संसारत्याग का उल्लेख पहले हुआ है, शासन का बाद में (क्रमश: ३.३४, ३. ४०) । काव्य का सप्तसन्धानत्व
सात व्यक्तियों के चरित को एक साथ गुम्फित करना दुस्साध्य कार्य है। प्रस्तुत काव्य में यह कठिनाई इसलिये और बढ़ गयी है कि यहाँ जिन महापुरुषों का जीवनवृत्त निबद्ध है, उनमें से पाँच जैनधर्म के तीर्थंकर हैं, अन्य दो हिन्दू धर्म के आराध्य देव, यद्यपि जैन साहित्य में भी वे अज्ञात नहीं हैं । कवि को अपने उद्देश्य की पूर्ति में संस्कृत की संश्लिष्ट प्रकृति से सबसे अधिक सहायता मिली है । श्लेष ऐसा अलंकार है जिसके द्वारा कवि भाषा में इतने अर्थ भर देता है कि जो जितना चाहे वाचस्पत्य करे। बहुश्रुत टीकाकार भाषा को इच्छानुसार अन्वित अथवा खण्डित करके अभीष्ट (अनभीष्ट भी) अर्थ निकाल सकता है । इसीलिये सप्तसन्धान में श्लेष की निर्बाध योजना की गयी है, जिससे काव्य का सातों पक्षों में अर्थ ग्रहण किया जा सके । किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्तसन्धान के प्रत्येक पद्य के सात अर्थ नहीं हैं। वस्तुतः काव्य में ऐसे पद्य बहुत कम हैं, जिनके सात स्वतन्त्र अर्थ किये जा सकते हैं। अधिकांश पद्यों के तीन अर्थ निकलते हैं, जिनमें से एक जिनेश्वरों पर घटित होता है। शेष दो का सम्बन्ध राम तथा कृष्ण से है। तीर्थंकरों की निजी विशेषताओं के कारण कुछ पद्यों के चार, पाँच अथवा छह अर्थ भी किये जा सकते हैं । जिन पद्यों के सात अर्थ किये गये हैं, उनमें कतिपय पदों के भिन्न अर्थों के द्वारा उन्हें विभिन्न चरितनायकों पर घटित किया गया है । पूर्णतया स्वतन्त्र सात अर्थ वाले पद्य काव्य में विरले ही होंगे । कुछ पद्य तो श्लेष से सर्वथा मुक्त हैं तथा उनका केवल एक अर्थ है। यही अर्थ सातों चरितनायकों पर चरितार्थ होता है। यही प्रस्तुत काव्य का सप्तसन्धानत्व है। कवि की यह उक्ति-काव्येऽस्मिन्नत एव सप्त कथिता अर्थाः समर्थाः श्रियै (४.४२)-भी इसी अर्थ में सार्थक है। - जो पद्य भिन्न-भिन्न अर्थों के द्वारा सातों पक्षों पर घटित होते हैं. उनमें ध्यक्तियों के अनुसार एक विशेष्य है, अन्य पद उसके विशेषण । अन्य पक्ष में अर्थ करने पर विशेषणों में से प्रसंगानुसार एक पद विशेष्य की पदवी पर आसीन