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सप्तसन्धानमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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हो जाता हैं, पूर्व विशेष्य सहित अन्य पद उसके विशेषण बन जाते हैं । इ प्रकार पाठक को सातों अभीष्ट अर्थ प्राप्त हो जाते हैं । उदाहरणार्थ सातों चरितनायकों के पिताओं के नाम प्रस्तुत पद्य में समाविष्ट हो गये हैं ।
अवनिपतिरिहासीद् विश्वसेनोऽश्वसेनोऽप्यथ दशरथनाम्ना यः सनाभिः सुरेशः r बलिविजयिसमुद्रः प्रौढसिद्धार्थसंज्ञः प्रसृतमरुणतेजस्तस्य भूकश्यपस्य ॥। १.५४ इस विधि से सात काव्यनायकों की जन्मतिथियों का उल्लेख भी एक पद्य में: कर दिया गया है ।
ज्येष्ठेऽसि विश्वहिते सुचेत्रे वसुप्रमे शुद्धनभोऽर्थमेये ।
सांके दशाहे दिवसे सपौधे जनिर्जनस्थाजनि वीतदोषे ।। २.१६
वस्तुतः कवि के लिए यह विधि इतनी उपयोगी है कि काव्यनायकों की सामूहिक विशेषताओं अथवा अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाओं के निरूपण में उसने इस शैली का खुलकर आश्रय लिया है । चरितनायकों की जन्मभूमि (१.३६ -४० ), माताओं के नाम, च्यवन तिथि (१.७८) तथा कैवल्यप्राप्ति की तिथियों (६.६३) आदि को इसी प्रकार सरलता से निरूपित किया गया है । प्रस्तुत पद्य में काव्यनायकों के चारित्र्य ग्रहण करने का वर्णन एक साथ हुआ है ।
जातेर्महाव्रतमधत्त जिनेषु मुख्यस्तस्मात्परेऽहनि स-शान्ति-समुद्रभूर्वा ।
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श्री पार्श्व एव परमोऽचरमस्तु मार्गे रामेऽक्रमेण ककुभामनुभावनीये ॥ ४.३६ कवि के 'सन्धान' का विद्रूप वहाँ दिखाई देता है, जहाँ पद्यों से विभिन्न अर्थ: निकालने के लिये ऐसी संश्लिष्ट भाषा प्रयुक्त की गयी है जो रचना-चातुर्य तथा दुरूहता का कीर्तिमान है । पाँचवें तथा छठे सर्ग में यह प्रवृत्ति चरम सीमा को पहुँच गयी है । पंचम सर्ग में ऐसे पद्यों की भरमार है जो आपाततः राम अथवा कृष्ण चरित से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं परन्तु उनमें पृथक् अथवा सामूहिक रूप में, अन्य नायकों के जीवन के कतिपय प्रकरण भी अन्तर्निहित हैं । छठे सर्ग की स्थिति इसके विपरीत है । इसके अधिकतर भाग में जिनेन्द्रों का वृत्त निरूपित है, शेषांश का, ऊपरी दृष्टि से राम तथा कृष्ण से सम्बन्ध प्रतीत होता है । सप्तम सर्ग के तथाकथित ऋतु वर्णन को भी चरित नायकों पर घटाने की चेष्टा की गयी है । पद्यों को विविध पक्षों पर चरितार्थ करने के लिए टीकाकार ने जाने-माने पद्यों के ऐसे चित्रविचित्र अर्थ किये हैं कि पाठक टीकाकार की विद्वत्ता तथा भेदक दृष्टि से चमत्कृत तो होता है, किन्तु टीका के चक्रव्यूह में काव्य के वज्र से जूझता - जूझता वह हताश हो जाता है । निम्नोक्त पद्य की पदावली पाण्डव पक्ष का आभास देती है किन्तु कवि का उद्देश्य इसमें मुख्यतः वसन्त का वर्णन करना है । टीका की सहायता के बिना कोई विरला ही इससे अभीष्ट अर्थ निकाल सकता है ।
दुःशासनस्य पुरशासनजन्मनैव
संप्रापितोऽध्वनियमो विघटोत्कटत्वात् ।