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देवानन्द महाकाव्य : मेघविजयगणि
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का उद्घोष है । प्रस्तुत पंक्तियों में सूर्य पर पति, भ्रमरों पर जार तथा कमलिनी पर पत्नी का आरोप किया गया है । भ्रमरों को अपनी प्रिया कमलिनी का चुम्बन करते देख कर सूर्य उन्हें अपने प्रचण्ड करों से पीट रहा है ।
रविकरैर्नलिनी प्रविबोधिता सरसिजास्यममी कथमापपुः ।
इह रुषा परुषा मधुपव्रजानुपरि ते परितेपुरतो भृशम् ।। ६.११ देवानन्द में स्वभावोक्ति का प्रायः अभाव है, फिर भी एक-दो स्थलों पर प्रकृति के सहज रूप का चित्रण मिल ही जाता है । ग्रीष्म ऋतु में दिन लम्बे हो जाते हैं, नवमल्लिका खिलने लगती है तथा शिरीष के पराग से वायुमण्डल सुरभित हो जाता है | आषाढ़ का यह स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत पंक्तियों में अंकित हुआ है, यद्यपि इसमें भी यमक का रंग भरा हुआ है ।
स्मितमिव स्फुटयन्नवमल्लिकां शुचिरयं चिरयन् दिवसानभात् । तदभिनन्दनमाशु रजः कर्णेदिवि तता विततान शुकावलीः ॥ ३.६३ चित्रकाव्य में जीवन के मर्मस्पर्शी प्रसंगों के रसात्मक चित्रण का अधिक अवसर नहीं होता । इसीलिये देवानन्द में महाकाव्योचित तीव्र रसानुभूति का अभाव है । पहले कहा गया है कि शृंगार रस प्रस्तुत काव्य की मूल प्रकृति के अनुरूप नहीं हैं, फिर भी इसमें शृंगार का उन्मेष हुआ है । इसका कारण समस्यापूर्ति की परवशता है, जिसने कवि की प्रतिभा को बन्दी बना लिया है। तीसरे, छठे तथा सातवें सर्ग में शृंगार रस की छटा दिखाई देती है । साबली की नारियों के प्रस्तुत वर्णन में शृंगार की माधुरी है ।
प्रियैः प्रियैर्ये वचसां विलासः स्त्रियः प्रसन्ना विहिता रतान्तः । सख्याः शुकस्तान्निवदंस्तदान्तेवासित्वमाप स्फुटमंगमानाम् ॥ ३.३२ छन्नेष्वपि स्पष्टतरेषु यत्र पिकानुवादान्मणितेषु सख्यः ।
प्रत्यायिताः संगम रंग सौख्यं भेजु स्वयं जातफलाः कलानाम् ॥। ३.६३
शृंगार के अतिरिक्त देवानन्द में शान्त तथा करुण रस की भी अभिव्यक्ति हुई है । द्वितीय सर्ग में कुमार वासुदेव की माता उसे गार्हस्थ्य जीवन स्वीकार करने को प्रेरित करती है किन्तु वह जीवन की अनित्यता तथा वैभव की चंचलता से इतना अभिभूत है कि उसे माता की आपाततः आकर्षक युक्तियां अर्थहीन प्रतीत होती हैं । उसकी इस वृत्ति के चित्रण में शान्तरस प्रस्फुटित हुआ है ( २।११) । करुणरस का परिपाक विजयदेवसूरि के स्वर्गारोहण से जनता में व्याप्त शोक के चित्रण में हुआ है । अधिकतर कालिदासोत्तर कवियों की भांति मेघविजय की करुणा चीत्कार - क्रन्दन पर आधारित है, जो हृदयस्पर्शी होती हुई भी मार्मिक नहीं है ।
गुरुवपुषि निवेशितेऽथ तस्यामरुददलं जनता घ्नती स्ववक्षः । बहलकरुणयालुठद् मुमूच्छं किमपि रसेन रसान्तरं भजन्ती ॥७.३८