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जैन संस्कृत महाकाव्य
वहन् बालातपरक्तसानुस्वर्णाद्रिविभ्रमम् । वपुषा कोपताम्रेण स ततौन्नत्यशालिना ॥ ३.२-४
अनुभावों के निरूपण में पुण्यकुशल की यही निपुणता, बाहुबलि की ओजपूर्ण चुनौती से भयाक्रान्त दूत की स्थिति के अभिराम चित्रण में प्रकट हुई है । प्रणिपात के प्रस्ताव की घृणापूर्ण अस्वीकृति तथा बाहुबलि के शौर्य के तेजस्वी बखान से दूत की घिग्गी बंध जाती है। उसे कंपकंपी छूट जाती है, सिर से पगड़ी गिर जाती है और रोम पसीने से तर हो जाते हैं । ये भयानक रस के अनुभाव हैं ।२८
भ.बा. महाकाव्य का पर्यवसान शान्तरस में होता है। महाभिमानी बाहुबलि और राज्यलोभी भरत दोनों, विभिन्न मार्गों से, केवलज्ञान के एक ही बिन्दु पर पहुँचते हैं। देवताओं से यह जानकर कि मान का परित्याग करने से बाहुबलि को कैवल्य की प्राप्ति हो गयी है, भरत को भी निर्वेद उत्पन्न हो जाता है । उसकी इस मनोभूमि में उस शान्तरस का कल्पतरु प्रस्फुटित होता है, जो, कवि के शब्दों में, सचमुच सरस है-भज शान्तरसं तरसा सरसम् (१७।७४) ।
ता राजदारा नरकस्य कारास्ते सर्वसाराः कलुषस्य धाराः। शनैः शनैश्चक्रमताथ तेन प्रपेदिरे बान्धववृत्तवृत्त्या ॥ १८.७२ उपाधितो भ्राजति बेह एष न च स्वभावात्कथमत्र रागः। तत्खायपेयः सुखितः प्रकामं न स्वीभवेज्जीवः विचारयतत् ॥१८.७६ एकान्तविध्वंसितया प्रतीतः पिण्डोऽयमस्मादतः कात्र सिद्धिः ।
विधीयते चेत्सुकृतं न किंचिद् देहश्च वंशश्च कुलं मृषेतत् ॥ १८.७७ प्रकृतिचित्रण
भ. बा. महाकाव्य कवि के प्रकृति-प्रेम का निश्छल उद्गार है। षड्-ऋतु, सन्ध्या, चन्द्रोदय, रात्रि, सूर्योदय आदि के अन्तर्गत पुण्यकुशल को प्रकृति के अनेक हृदयग्राही चित्र अंकित करने का अवसर मिला है। कवि का प्रकृति के प्रति कुछ ऐसा अनुराग है कि वह कथावस्तु को भले ही भूल जाए किन्तु प्रकृति-चित्रण में सदैव तत्पर रहता है । युद्धप्रधान काव्य में प्राकृतिक सौन्दर्य का यह साग्रह वर्णन कवि के प्रकृति के गम्भीर अध्ययन तथा सहज सहानुभूति को प्रकट करता है । भ. बा महाकाव्य में प्रकृति की विभिन्न मुद्राएं देखने को मिलती हैं। कहीं वह मानव-सुलभ कार्यकलाप में रत है, कहीं उसका रूप मानव-हृदय में गुदगुदी पैदा करता है और कहीं वह समस्त आडम्बर छोड़कर अपनी नैसर्गिक रूप-माधुरी से उसके भावुक हृदय को मोह लेती है। तत्कालीन काव्य-परम्परा के अनुरूप यद्यपि भ.बा. महाकाव्य का प्रकृति-चित्रण वक्रोक्ति पर आधारित है, किन्तु पुण्यकुशल के प्रकृति-प्रेमी कवि ने प्रकृति २८. वही, ३.३७,३९-४०