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जैन संस्कृत महाकाव्य चमत्कार, नाना प्रौढ़ अलंकारों का सन्निवेश, छन्दकोशल का प्रदर्शन, प्रौढ (क्लिष्ट) भाषा तथा वातावरण महाकाव्य के अनुरूप हैं।
देवानन्द में महाकाव्य के कुछ परम्परागत तत्त्व उपलब्ध भी हैं। इसका बारम्भ मंगलाचरण से हुआ है, जिसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की वन्दना की गयी है। धीरोदात्त गुणों से सम्पन्न श्रेष्ठिपुत्र वासुदेव (विजयदेवसूरि) इसका नायक है। प्रतिष्ठित संयमधन आचार्य के उदात्त चरित से सम्बन्धित होने के कारण देवानन्द का कथानक सुविज्ञात है। चतुर्वर्ग में से धर्म इसकी रचना का प्रेरक उद्देश्य है । काव्य में धर्म को कल्याणप्राप्ति का अचूक साधन माना गया है। साधुजीवन पर आधारित कथानक में देश, नगर, पर्वत, षड्ऋतु, अश्वसेना, गजराजि आदि के अलंकृत वर्णन देवानन्द को महाकाव्य-रूप देने की कवि की आतुरता को इंगित करते हैं । काव्य का शीर्षक कथानायक देव (विजयदेव) के नाम पर आधृत है तथा सर्गों का नामकरण, उनमें वर्णित विषयों के अनुसार है। सज्जनप्रशंसा तथा खलनिन्दा रूढियों का भी काव्य में यथेष्ट पालन किया गया है। इस प्रकार देवानन्द में महाकाव्य के कुछ स्वरूप-निर्माता तत्त्व हैं, कुछ का अभाव है। किन्तु इस आंशिक अभाव से इसका महाकाव्यत्व नष्ट नहीं हो जाता । इसीलिए शीर्षक तथा प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में देवानन्द को महाकाव्य संज्ञा प्रदान की गयी हैं।' कविपरिचय तथा रचनाकाल
प्रस्तुत काव्य तथा अपनी अन्य रचनाओं की प्रान्तप्रशस्ति में मेघविजय ने अपने मुनि-जीवन का पर्याप्त परिचय दिया है । मेघविजय मुगल सम्राट अकबर के कल्याणमित्र हीरविजयसूरि के शिष्यकुल में थे। उनके दीक्षा-गुरु तो कृपाविजय थे, किन्तु उन्हें उपाध्याय पद पर विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयप्रभसूरि ने प्रतिष्ठित किया था।' विजयप्रभसूरि के प्रति मेघविजय की कुछ ऐसी श्रद्धा है कि न केवल प्रस्तुत काव्य के अन्तिम सर्ग में उनका प्रशस्तिगान किया है, अपितु दो स्वतन्त्र काव्यों --दिग्विजय महाकाव्य तथा मेघदूतसमस्यालेख-के द्वारा भी कवि ने गुरु के प्रति कृतज्ञता २. धर्माद् रसादिव स्वल्पादपि कल्याणसाधनम् । देवानन्दमहाकाव्य, २.२५. ३. यथा-इति श्रीदेवानन्दे महाकाव्ये दिव्यप्रभापरनाम्नि....कथानायक-उत्पत्तिवर्ण. ननामा प्रथमः सर्गः।। ४. गच्छाधीश्वरहीरहीरविजयाम्नाये निकाये धियां
मत्यः श्रीविजयप्रभाख्यसुगुरोः श्रीमत्तपाख्ये गणे। शिष्यः प्राजमणेः कृपादिविजयस्याशास्यमानाप्रणी श्वके वाचकनाममेघविजय शस्यां समस्यामिमाम् ॥ शान्तिनाथचरित १.१२६ देवानन्वप्रशस्ति, ७६-८०, शान्तिनाथचरितप्रशस्ति, ५.