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देवानन्द महाकाव्य : मेघविजयगणि
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विहार के लिये जाते समय मुनिराज सूरत में सागरपक्षीयों को शास्त्रार्थ में पराजित करते हैं । श्राविका चतुरा की प्रार्थना से आचार्य शाहपुर गये तथा औरंगजेब के उपवन में चातुर्मास किया। कट्टरपंथी मुगल सम्राट् ने भी मुनिश्री का हार्दिक स्वागत किया और उनकी प्रेरणा से जीवहत्या वर्जित कर दी, जिसका पालन उसके उत्तराधिकारी भी करते रहे । दक्षिणदिग्विजय नामक पांचवें सर्ग में विजयदेवसूरि के दक्षिण दिशा में विहार करने का वर्णन है । कुल्लपाकपुर में उन्होंने आदिनाथ की वन्दना की तथा अमरचन्द को वाचक पद प्रदान किया । शासनदेव के आदेश से सूरिराज ने, गन्धपुर में सम्वत् १७०६, वैशाख शुक्ला दशमी को वीरविजय को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया तथा उनका नाम विजयप्रभ रखा । सर्ग के शेष भाग में परम्परागत छह ऋतुओं का वर्णन है। सातवें सर्ग में विजयदेवसूरि अपने पट्टधर विजयप्रभसूरि का अहमदाबाद में वन्दनोत्सव करते हैं । इसके लिये इभ्यराज धनजी प्रसूरि का अहमदाबाद में वन्दनोत्सव करते हैं । इसके लिये इभ्यराज धनजी तथा उसकी श्रद्धालु पत्नी ने विशाल आयोजन किया । विमलगिरि की यात्रा के पश्चात् विजयदेवसूरि ने ऊना ( ऊन्नतपुर) में आचार्य हीरविजय की समाधि के दर्शन किये तथा वहीं प्राक्-मरण अनशन से सम्वत् १७१३ अषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाधि ली। गुरु की मृत्यु से सारा संघ शोकसागर में डूब गया। रायचन्द्र ने आचार्यश्री की स्मृति में वहां एक विहार बनवाया। संघ के अनुरोध पर विजयप्रभसूरि गुरु के पट्ट पर आरूढ़ हुए तथा समाज का नेतृत्व अपने हाथ में लिया । सर्ग के शेषांश में विजयप्रभसूरि के विहार का वर्णन है ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि काव्य में विजयदेवसूरि के जीवन के कुछ प्रसंगों का ही निरूपण है । उनके चरित का विस्तृत वर्णन तो विजयदेवमाहात्म्य में हुआ है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि देवानन्द में वर्णित काव्यनायक से सम्बन्धित घटनाएँ सर्वथा सत्य तथा प्रामाणिक हैं। उनकी तिथियों, दिनों तथा सम्वतों में भी कोई अन्तर नहीं है । यह अवश्य है कि जहां विजयदेव - माहात्म्य सम्वत् १६८७ तक की घटनाओं तक सीमित है, वहां देवानन्द में विजयदेवसूरि के साधुजीवन के परवर्ती प्रसंगों तथा स्वर्गारोहण का भी निरूपण किया गया
है ।
समस्यापूर्ति के कठोर बन्धन के कारण मेघविजय अनावश्यक वर्णनों के फेर में नहीं पड़े हैं। उनका कोई भी वर्णन १५-२० पद्यों से अधिक नहीं है । इसीलिये उनका कथ्य प्राय: सर्वत्र आगे बढ़ता रहता है ।
देवानन्द की परिशीलन से आशंका उत्पन्न होती है कि कनकविजय को सूरिपद पर प्रतिष्ठित करने के उपरान्त विजयदेव ने अपने एक अन्य शिष्य, वीरविजय को अपना पट्टधर क्यों नियुक्त किया ? इसका समाधान बिजयदेवमाहात्म्य से भी