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देवानन्दमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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प्रकट की है । ये दोनों काव्य विजयप्रभसूरि के सारस्वत स्मारक हैं । जिसके वरद हस्त ने प्रतिष्ठित पद पर आसीन किया हो, उसके गुणगान में यदि शिष्य अपनी भारती की सार्थकता माने, तो इसमें आश्चर्य क्या ?
मेघविजय अपने समय के प्रौढ पण्डित-कवि, प्रत्युत्पन्न दार्शनिक, प्रयोगशुद्ध वैयाकरण, समयज्ञ ज्योतिषी तथा आध्यात्मिक आत्मज्ञानी थे। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी लेखनी चलायी तथा सबको प्रतिभा एवं विद्वत्ता के स्पर्श से आलोकित कर दिया है । प्रस्तुत काव्य के अतिरिक्त दो महाकाव्यों-दिग्विजयमहाकाव्य तथा सप्तसन्धानमहाकाव्य-का विवेचन, ग्रन्थ में अन्यत्र किया गया है । मेघविजय समस्यापूर्ति के पारंगत आचार्य हैं । उन्होंने देवानन्द, मेघदूतसमस्यालेख तथा शान्तिनाथ चरित में क्रमश: माघकाव्य, मेघदूत तथा नैषधचरित की समस्या-पूर्ति करके अपने अद्भुत रचनाकौशल तथा गहन पाण्डित्य का परिचय दिया है । लघुत्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित, भविष्यद्दत्तकथा तथा पंचाख्यान उनकी अन्य ज्ञात काव्य कृतियां हैं। विजयदेवमाहात्म्यविवरण श्रीवल्लभ के विजयदेवमाहात्म्य की टीका है। युक्तिप्रबोधनाटक तथा धर्ममंजूषा न्यायग्रन्थ है। चन्द्रप्रभा-हेमशब्दचन्द्रिका तथा हेमशब्दप्रक्रिया उनके व्याकरण के पाण्डित्य के प्रतीक हैं । वर्षप्रबोध, रमलशास्त्र, हस्तसंजीवन, उदयदीपिका, प्रश्नसुन्दरी, वीसायन्त्रविधि मेघविजय की ज्योतिषरचनायें हैं । अध्यात्म से सम्बन्धित कृतियों में मातृकाप्रसाद, ब्रह्मबोध तथा अर्हद् गीता उल्लेखनीय हैं। इन चौबीस ग्रन्थों के अतिरिक्त पंचतीर्थस्तुति तथा भक्तामर स्तोत्र पर उनकी टीकाएं भी उपलब्ध हैं । संस्कृत की भांति गुजराती को भी मेघविजय की प्रतिभा का वरदान मिला है। यह वैविध्यपूर्ण साहित्य उनकी बहुमुखी विद्वता का द्योतक है।
मेघविजय ने अपनी विभिन्न कृतियों में रचनाकाल का जो निर्देश किया है, उससे इनके स्थितिकाल का कुछ अनुमान किया जा सकता है। श्रीवल्लभकृत विजयदेवमाहात्म्य की प्रतिलिपि सम्वत् १७०६ में की गयी थी।। मूलग्रन्थ का इससे पूर्व रचित होना सुनिश्चित है। मेघविजय ने विजयदेवमाहात्म्य के विवरण की रचना सं. १७०८ के पश्चात् की होगी। यह उनकी प्रथम रचना प्रतीत होती है। यह मौलिक ग्रन्थों के प्रणयन से पूर्व सम्भवतः टीका-टिप्पणी के द्वारा ख्याति अर्जित करने का प्रयास है। सप्तसन्धानमहाकाव्य उनकी अन्तिम कृति है, जिसकी
५. लिखितोऽये ग्रन्थः पण्डितश्री ५ श्रीरङ्ग सोमगणि शिष्य मुनि सोमगणिना । सं. १७०६ वर्ष चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशतिथौ........। विजयदेव माहात्म्य, सर्ग १६,पृ० १२६-१२७