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जैन संस्कृत महाकाव्य
रचना सम्वत् १७६० में सम्पन्न हुई थी। विजयदेवमाहात्म्यविवरण की रचना के समय उनकी अवस्था लगभग पच्चीस वर्ष की अवश्य रही होगी । अतः सम्वत् १६८५ तथा १७६५ (अर्थात् १६२८ तथा १७०८ ई०) के बीच मेघविजय का स्थितिकाल मानना अयुक्त नहीं है।
देवानन्दमहाकाव्य की रचना मारवाड़ के सादड़ी नगर में सम्बत् १७२७ (१६५० ई०) की विजयदशमी को पूर्ण हुई थी। इसका उल्लेख काव्य की प्रान्तप्रशस्ति में किया गया है।
मुनिनयनाश्वेन्दुमिते वर्षे हर्षेण सादड़ीनगरे ।
ग्रन्थः पूर्णः समजनि विजयदशम्यामिति श्रेयः ॥८॥ इसकी एक प्रतिलिपि स्वयं ग्रन्थकार ने ग्वालियर में की थी। काव्य की एक अन्य प्रतिलिपि सम्वत् १७५५ में मेरुविजय के शिष्य सुन्दरविजय द्वारा तैयार की गई थी। कथानक
देवानन्द सात सर्गों का महाकाव्य है। कथानायकोत्पत्तिवर्णन नामक प्रथम सर्ग में मंगलाचरण, नगरवर्णन आदि रूढियों के निर्वाह के पश्चात् ईडरवासी श्रेष्ठी स्थिर के पुत्र वासुदेव के जन्म का वर्णन है । द्वितीय सर्ग में कुमार की माता (रूपा) तथा पितृव्य नाना युक्तियों से उसे गार्हस्थ्य जीवन स्वीकार करने को प्रेरित करते हैं, किन्तु वह मुक्तिवधू का पाणिग्रहण करने का निश्चय करता है और माध शुक्ला दशमी (सम्वत् १६३४) को, अकबर के प्रबोधदाता आचार्य हीरविजय के पट्टधर विजयसेन सूरि से अहमदाबाद में तापसव्रत ग्रहण करता है। दीक्षोपरान्त वह विद्याविजय नाम से ख्यात हुआ। खम्भात के सेठ श्रीमल्ल के अनुरोध पर विजयसेनसूरि उसे सम्वत् १६५७ में, आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करते हैं । तत्पश्चात् विद्याविजय ने विजयदेवसूरि के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। मुगल सम्राट जहांगीर 'महातपा' उपाधि से उनकी विद्वत्ता तथा प्रतिभा का अभिनन्दन करता है। तृतीय सर्ग में शासनदेवता के आदेश से विजयदेवसूरि कनकविजय को वैशाख शुदि षष्ठी, सम्वत् १६८२ को, अपनी जन्मभूमि ईडर में आचार्य पद प्रदान करते हैं और स्वर्णगिरि में उनका वन्दनोत्सव सम्पन्न करते हैं। मारवाड़ में आचार्य के पदार्पण करते ही मरुभूमि नदीमातृक बन गयी। गुजरात में दो वर्ष बिता कर शत्रुजय-यात्रा को जाते समय उन्होंने उन्नतपुर में अपने प्रगुरु हीरविजय की समाधि के दर्शन किये । यमकरम्य चतुर्थ सर्ग का आरम्भ रैवतक तथा सिद्धाचल के वर्णन से होता है। दक्षिण दिशा के ६. सप्तसन्धानमहाकाव्य, प्रशस्ति ३ । ७. देवानन्दमहाकाव्य, ग्रन्थप्रशस्ति ३ । ८. वही, ग्रन्थप्रशस्ति ।