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भरतवाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल
ऐसे तोड़ दिया जैसे क्रोधी सौजन्य को तथा पुण्यवान् पाप को नष्ट कर देता है।
अतूत्रुटद् गुणं कश्चिच्चापदोष्णोविरोधिनः।
मन्युमानिव सौजन्यमजन्यमिव पुण्यवान् ॥ १५.३३५
भ० बा० महाकाव्य में उपमा के पश्चात् अर्थान्तरन्यास का व्यापक प्रयोग हुआ है । अर्थान्तरन्यास कवि के चिरसंचित ज्ञान तथा विस्तृत अनुभव का प्रतीक है। अग्रज के दूत के आगमन से बाहुबलि की विशेष उक्ति की पुष्टि, प्रस्तुत पद्य में, उत्तरार्ध के सामान्य कथन से की गई है।
नितान्ततृष्णातुरमस्मदीयं बन्धुप्रवृत्त्या सुखयाद्य चित्तम् ।
दूरेऽस्तु वारिधरवारिधारा सारंगमानन्दति गजिरेव ॥ २.४
बाहुबलि की वीरता की अभिव्यक्ति, निम्नोक्त पद्य में, अप्रस्तुतप्रशंसा के द्वारा की गई है। यहां अप्रस्तुत राहु तथा सूर्य से क्रमशः भरत और बाहुबलि व्यंग्य
सिंहिकासुतमेवैकं स्तुमस्तं करवजितम् ।
ग्रहाणामीश्वरं योऽत्र सहस्रकरमत्ति हि ॥ ३.१२.
उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त भ० भा० महाकाव्य में उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, समासोक्ति, दृष्टान्त, विरोधाभास, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, कायलिंग, सहोक्ति, यथासंख्य, समुच्चय, प्रतिवस्तूपमा, असंगति तथा विशेषोक्ति भी अभिव्यक्ति के माध्यम बने हैं। उपमा कवि का खास अलंकार है। छन्दयोजना
भ० बा० महाकाव्य का कवि विविध छन्दों के प्रयोग में सिद्धहस्त है । काव्य में छन्दों की योजना शास्त्र के अनुकूल है । सम्पूर्ण काव्य के निबन्धन में उन्नीस छन्दों का आश्रय लिया गया है, जो इस प्रकार हैं- वंशस्थ, उपजाति, अनुष्टुप, वियोगिनी, द्रुतविलम्बित, स्वागता, रथोद्धता, त्रोटक, वसन्ततिलका, मालिनी, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, हरिणी, पुष्पिताग्रा, स्रग्धरा, मन्दाक्रान्ता, प्रहर्षिणी, शालिनी तथा पृथ्वी । उपजाति कवि का प्रिय छन्द है । तत्पश्चात् क्रमशः अनुष्टुप् और वंशस्थ का स्थान है।
भ० बा० महाकाव्य में एक साथ कालिदास और माघ की परम्पराओं का निर्वाह हुआ है । कथानक की परिकल्पना, घटनाओं के संयोजन तथा रूढ़ियों के पालन में पुण्यकुशल ने माघकाव्य का अनुसरण किया है । माघकाव्य के समान इसमें इतिवृत्ति-निर्वाहकता नाम मात्र की है । भावपक्ष के निर्माण में कवि का प्रेरणा-स्रोत
कतिपय अन्य मालोपमाओं के लिए देखिए-६.७३, ११.६०, १५.३२, ४३, ११६, १७.३३, १८.२६