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जैन संस्कृत महाकाव्य नायक का उसे शय्या से उठाकर बाहुपाश में बांधना तथा उसके आभूषणों, हारों आदि का टूटना अनुभाव है । औत्सुक्य, मति, स्मृति, हर्ष आदि संचारी भाव हैं । ये विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव मिलकर स्थायी भाव रति को श्रृंगार रस का रूप देते हैं।
दिग्विजयमहाकाव्य में श्रृंगार के अतिरिक्त अद्भुत, वीर तथा हास्यरस की भी यथोचित अवतारणा हुई है। महावीर प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर दिशाएँ देवध्वनि से गुञ्जायमान हो गयीं, देवता पृथ्वी पर उतर आये, दुन्दुभिनाद सुनकर काम की शक्ति नष्ट हो गयी तथा मेघकुमारों ने सुगंधित जल की वर्षा की। इन घटनाओं में अद्भुत रस की निष्पत्ति हुई है।
देवध्वनिर्ध्वनितदिग्वलयः ससार व्योम्नस्तदा सुमनसो द्विविधाऽवतेरुः । निर्दम्भदुन्दुभिरभिन्नरवो जगर्ज सन्तर्जयन्निव विमोहमहोज्जितानि ॥ ३.११ पुष्पाणि तत्र ववषुर्बहुसौरभाणि संसिच्य गन्धसलिलैः परितो धरित्रीम् । आजानुभागमपि मेघकुमारदेवाः सेवाविषेरसमयं समयं प्रतीक्ष्य ॥ ३.१६
काव्य में दिग्विजय का वर्णन बहुधा श्लेषविधि से किया गया है। किन्तु युवपक्ष में अर्थ सम्भव होने पर भी उसमें सदैव वीररस की अभिव्यक्ति नहीं हुई है। श्लेष से पाठक को चमत्कृत करना ही कवि का लक्ष्य प्रतीत होता है। महावीर प्रभु की दिग्विजय के वर्णन के अन्तर्गत प्रस्तुत पंक्तियों में वीररस की छटा अवश्य दिखाई देती है।
दक्षाः पराक्रमधियावरणस्य भंगे शूरा विचेररभितो विषये क्षमायाः। मुक्तैषिणः सरसमूहमिहाविशन्तः सन्त स्थिता धृतरुचः खलु मण्डलाग्ने ॥ ३.४७
दिग्विजयकाव्य में एक स्थान पर हास्य की मधुर झलक दिखाई देती है । एक नायिका मणियों के फर्श में अपने प्रियतम के सैंकड़ों प्रतिबिम्ब देखकर भौचक्की रह गयी। वह निर्णय नहीं कर सकी कि पति कौन है ? उसकी इस भ्रान्ति को देखकर सखियां खिलखिला कर हंस पड़ती हैं।
मणिकुट्टिमरंगसंगमे शतधा स्वस्य धवस्य बिम्बितः। भयविस्मयसाहसान्विता बनिता स्वालिजनेन हस्यते ॥ ८.२५
ये रसात्मक प्रसंग काव्य के धार्मिक इतिवृत्त को रस से सिक्त करते हैं। किंतु रस-चित्रण में कवि को अधिक सफलता नहीं मिली है। काव्य की प्रकृति के अनुरूप इसमें शान्त रस को मुख्य स्थान न देना कवि की बहुत बड़ी चूक है । वस्तुतः वह वर्णनों के गोरखधन्धे में इतना उलझा हुआ है कि मानवहदय की विविध तरंगों के उत्थान-पतन तथा घात-प्रतिघात का रसात्मक विश्लेषण करने का उसे अवकाश नहीं है।