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दिग्विजयमहाकाव्य : मेघविजयगणि
२१७.
भाषा
लिखिजयमहाकाय का जो तत्त्व अकेला ही इसे उच्च पद पर प्रतिष्ठित करता है, वह इसकी उदात्त एवं गम्भीर भाषा है । जैनाचार्य के साधुजीवन का प्रौढ़ किन्तु प्रांजल भाषा में निबन्धन करना स्वयं एक उपलब्धि है । इस कोटि की कथावस्तु की, भाषात्मक दृष्टि से, क्या दयनीय परिणित हो सकती है, यह श्रीवल्लभ के विजयदेवमाहात्म्य से स्पष्ट है।
मेघविजय का भाषा पर स्पर्धनीय अधिकार है । भाषाधिकार के बिना वह शाब्दी जादूगरी सम्भव नहीं, जो समस्यापूर्तिरूप देवानन्दमहाकाव्य अथवा 'प्रत्येकाक्षरश्लेषमय' सप्तसन्धान में की गयी है। दिग्विजयमहाकाव्य में, भाषा के नाम पर वह बौद्धिक उत्पीड़न तो नहीं है, किन्तु यहां भी भाषा कवि की वशवर्ती है तथा वह उसका स्वच्छन्द प्रयोग कर सकता है, इसमें तनिक सन्देह नहीं है। पूरे दो सर्मों में यमक का विकट प्रयोग, अन्त्य तथा मध्यपदीय अनुप्रास की योजना, श्लेष तथा चित्रकाव्य, कवि के भाषाधिकार के ज्वलन्त प्रमाण हैं। श्लिष्ट वर्णनों तथा यमक एवं चित्रकाव्य वाले स्थलों में क्लिष्टता का समावेश स्वाभाविक था। दिग्विजयकाव्य में श्लेष का स्वतन्त्र अथवा अन्य अलंकारों के अवयव के रूप में पर्याप्त प्रयोग किया गया है। किन्तु श्लेष की करालता नवें सर्ग के आरम्भ में दिखाई देती है, जहां चन्द्रोदय तथा विभिन्न दार्शनिक मतों का श्लिष्ट वर्णन किया गया है। प्लेष की क्लिष्टता ने दोनों को लील लिया है।" यमक तथा चित्रकाव्य से आच्छादित सप्तम सर्ग में भी भाषा की यही परिणति हुई है। परन्तु यह दिग्विजयकाव्य की भाषा का एक पक्ष है । उक्त प्रसंगों को छोड़ कर काव्य में बहुधा अल्पसमासयुक्त, परिष्कृत किन्तु प्रांजल पदावली प्रयुक्त हुई है। दिग्विजयमहाकाव्य की भाषा अधिकतर प्रसाद गुण से परिपूर्ण है, यह एक मधुर आश्चर्य है। विजयप्रभ की उत्तरदिशा की विजय वाला पंचम सर्ग प्रसादगुण का उत्तम उदाहरण है। सिरोही के निवासियों के प्रस्तुत वर्णन में भाषा की यह विशेषता प्रकट है।
वसति धनदः सर्वः पौरः परं न कुबेरः परमरतिमान् वारुण्यां न प्रचेतसि चानिमः । न चपलकलां क्वाप्यादत्ते स पुण्यजनोऽप्यहो
प्रमुदितमनाः सद्यः सौरोदये न जड़ात्मभूः ॥ ५.४२ ११. प्रभासु जाड्यऽपि महातपोऽभूद् वियोगभाजः प्रकृतविकारात् ।
विधौ विधौतत्विषि कापिलीया प्रवृत्तिरासीत् कुमुवां विबोधे। वही .१६ १२. महो दयाया जगतीश्वरश्रियो मा या विमोहं स्म यतोऽहंता मते ।
महोदयायाऽऽजगतीश्वरश्रियो यथास्थितं भावनयाऽस्व सन्मते ! ॥बही ७.४४