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दिग्विजयमहाकाव्य : मेघविजयगणि
२१६ यमक की भूलभूलैया में डाले रखा है।" इसी सर्ग के उत्तरार्द्ध में, मेघविजय चित्रशैली के प्रलोभन में फंस गये हैं । यहां कुछ ऐसे पद्यों की रचना की गयी है, जिनमें कहीं क्रिया गुप्त है, कहीं वर्ग विशेष के वर्गों का सर्वथा अभाव है तथा कुछ पद्यों का उनमें प्रयुक्त अक्षर, मात्रा, अनुस्वार आदि का लोप करके भी संगत अर्थ करना संभव है । स्वभावतः वह पूर्वार्थ से भिन्न होगा। इन कलाबाजियों ने यमक की दुस्साध्यता को और जटिल बना दिया है।
प्रस्तुत पद्य में 'ससार' 'अधित' तथा 'आप' ये तीन क्रियाएं अन्तनिहित हैं, किन्तु उनका बोष प्रयत्नपूर्वक ही सम्भव है।
समाधिता पापरुचिविवर्द्धनं ससार पुण्याभ्युदयो महस्विनाम् । समाधितापापरुधिविवर्द्धनं वीरे गुरौ श्रीजिनवीरतीर्थपे ॥ ७.४७
निम्नोक्त श्लोक का 'दधे' क्रिया के रकार तथा 'विश्वाम्' विशेषण के वकार के बिना अर्थात् 'दधे' तथा 'विशाम्' के आधार पर भी अर्थ किया जा सकता है।
विश्वांगणे चेतनतां निभालयन् दधे पदं योऽनवधारणायुतः। विश्वां गणे चेतनतां निभालय स्थिति स सन्त्याजयति स्म मण्डले ॥ ७.६६
कुछ पद्यों का अर्थ वर्णविशेष की च्युति से संगत बनता है। उदाहरणार्थ प्रस्तुत अनुष्टुप् के तृतीय चरण में प्रयुक्त 'वन्दने' के बिन्दु का लोप करके 'वदने' पढ़ने से ही अर्थ सम्भव है।
वन्दने रुचिराभाति शितांशुकलयान्विता।
वन्दने रुचिराभाऽतिशयाद् गीविदुषां गुरोः ॥ ७.५६ यह शाब्दी क्रीड़ा पण्डितवर्ग के बौद्धिक विलास के लिए कितनी भी उपयोगी हो और इससे भले ही कवि का भाषाधिकार घोतित हो; किन्तु यह काव्य के आस्वादन में दुर्लध्य बाधा है, इसमें दो मत नहीं हो सकते । इस प्रकार दिग्विजयमहाकाव्य की भाषा क्लिष्टता तथा प्रांजलता के दो छोरों में बंधी है। उसमें विद्वता तथा अभ्यासजन्य परिष्कार है। देवानन्द तथा सप्तसन्धान की भाषा के वध से जूझने के पश्चात् दिग्विजयकाव्य की भाषा को पढ़कर मस्तिष्क को कुछ विश्राम मिलता है। १३. इन क्लिष्ट पद्यों से मेघविजय के यमक की विकटता का अनुमान किया जा सकता है। न गौतमीयं मतमक्षपाद धिया प्रमाण्यक्रियतामुना मनाक । न गौतमीयं मतमक्षपाद प्रमोचितं केवलिनः प्रमोचितम् ॥ ७.३२ विमुक्तरा गा नवधा सुरक्षणा जगौ गुरुब्रह्मधरः क्षमापरः । विमुक्तरागा नवधासुरक्षणा गणे प्रवृत्तिर्वतिनां ततोऽभवत् ॥ ७.३४