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दिग्विजयमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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निम्नलिखित पंक्तियों में 'यदि' के अर्थ बल से सूर्य, चन्द्रमा तथा कमल में क्रमशः सौम्यता, निष्कलंकता तथा दीप्ति के कल्पित सम्बन्ध की सम्भावना की गयी है, अतः यहां अतिशयोक्ति अलंकार है।
यदि सौम्यरुचिदिवाकरेऽप्यथवा राजनि निष्कलंकता। जलजन्मनि भासुरद्युती रमतां तत्र शुभाननोपमा ॥ ८.१०३
प्रस्तुत पद्य में अर्थसिद्ध व्यावृत्ति है। अर्थ के श्लेष पर आधारित होने से यहां श्लेषमूलक आर्थ परिसंख्या है।
तन्त्रेऽस्य को दण्डगुणाधिरोपलक्षेषु दक्षो न रसे नयाऱ्याः। सर्वो जनः क्षेत्रविभागवेदी नेदीयसी सिद्धिमिवान्वमस्त ॥ ६.५२
आगरा के राजप्रासाद के प्रस्तुत वर्णन में, दर्शक राजमहल को देखकर रोहणाचल को भूल गये, इस विशेष कथन की उत्तरार्द्ध की एक सामान्य उक्ति से पुष्टि करने के कारण अर्थान्तरन्यास है । प्रस्तुत राजमहल की अप्रस्तुत रोहणाचल से श्रेष्ठता निरूपित करने में व्यतिरेक है।
रत्नराशिरचितैर्नृपसोधः प्रेक्षको हृतमना इव सर्वः। रोहणाचलरुचि विमुमोच शोचन्ते न लघुमप्यधिकाप्तौ ॥ १०.६५
काव्य में प्रयुक्त अन्य अलंकारों में रूपक, विरोधाभास, यथासंख्य, सहोक्ति, उपमा, हेतु तथा काव्यलिंग उल्लेखनीय हैं। छन्द योजना
दिग्विजयमहाकाव्य में छन्दों का प्रयोग शास्त्रीय विधान के अनुसार किया गया है। ग्यारहवें सर्ग में नाना वृत्तों का प्रयोग भी शास्त्र-सम्मत है । इस सर्ग में प्रयुक्त छन्दों के नाम इस प्रकार हैं-अनुष्टुप्, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, वंशस्थ, स्वागता, वसन्ततिलका, मालिनी, हरिणी, शार्दूलविक्रीडित तथा स्रग्धरा । अन्य सर्गों में इन्द्रवज्रा, पृथ्वी, द्रुतविलम्बित, इन्द्रवंश तथा वियोगिनी ये पांच नये छन्द हैं । कुल मिला कर दिग्विजयमहाकाव्य की रचना पन्द्रह छन्दों में हुई है।
दिग्विजयमहाकाव्य की रचना के मूल में गुरुभक्ति की उदात्त प्रेरणा निहित है । किन्तु परम्परागत काव्यशैली ने कवि के प्रयोजन को धूमिल कर दिया है। दिग्विजय की छुई-मुई मुरझा गयी है और सारा काव्य वर्णनों की बाढ़ में डूब गया है। सन्तोष है कि कवि के अन्य दो काव्यों की भांति इसकी परिणति दुरूहता में नहीं हुई है।