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जैन संस्कृत महाकाव्य प्रथम सर्ग के अन्त में, सुमेरु का वर्णन भी इसी भाषात्मक विशदता से ओतप्रोत है । एक-दो उदाहरणों से इस प्रसंग की प्रांजलता का परिचय मिल जायेगा।
वचिच्च स्फटिकसानुभिर्षवलभावमुभावयन् क्वचिच्च बहुधातुभिर्बहलशोणिमानं वमन् । क्वचिन्मणिमरीचिभिर्षनुरथेन्द्रमुल्लासयन् करोति सुरयोषितां मनसि मान्मथोद्दीपनम् ॥ १.६८
दिग्विजयमहाकाव्य में वर्णनों का प्राधान्य है । वस्तुतः इसकी रचना में कवि का एक उद्देश्य अपनी वर्णनशक्ति का प्रदर्शन करना है। उसके सभी वर्णन एक जैसे रोचक अथवा मार्मिक हों, ऐसी बात नहीं। अष्टम सर्ग में पार्श्व-प्रतिमा का सांगोपांग वर्णन निश्चित रूप से नीरस है । प्रतिमा के चरण, नयन, ललाट, कण्ठ, वक्ष आदि का वर्णन पाठक को उबा देता है । बिम्बवैविध्य के अभाव के कारण उसके प्रकृतिचित्रण में भी अधिक सरसता नहीं है। सूरिराज विजयप्रभ के स्वागत के लिए उदयपुर के शासक की सेना के प्रयाण का यह वर्णन अपेक्षाकृत अधिक रोचक है, यद्यपि यमक ने इसकी रोचकता को अंशतः दबा लिया है। काव्य में यह वर्णन सैन्य-प्रयाण की रूढ़ि का निर्वाह करने के लिये किया गया है, अन्यथा पवित्रतावादी तपस्वी के प्रवेशोत्सव में सेना जुटाने की क्या आवश्यकता ?
अथ चचाल विशालबले पुरो मदमलीनकटा करिणां घटा। घनघटेव भुग परिसिंचती तरुणतारुणतान्वितबिन्दुभिः ॥ ६.१ रजतकिंकिणीकारणपूरितभ्रंमददभ्रतरभ्रमरस्वरैः। त्रुतविलम्बितमेव जगाम सा घनमदा न मदायतपृष्ठिका ॥ ६.८ तदनु कांचनरत्नमयर्युताः प्रवरपल्ययनस्तुरगोत्तमाः।
अनुचरैश्चतुर्ररुपरक्षिता अगणना गणनायकमम्ययु ॥ ६.८ (अ) पाण्डित्य-प्रदर्शन
- अपने अन्य दो महाकाव्यों की भांति मेघविजय ने प्रस्तुत काव्य में, समस्या पूर्ति अथवा नानार्थक काव्य के द्वारा पाठक को बौद्धिक व्यायाम तो नहीं कराया है, किन्तु उसका पण्डित अपने रचना-कौशल का प्रदर्शन करने के लिये सदैव आतुर है । विद्वता-प्रदर्शन की यह आतुरता, दिग्विजयमहाकाव्य में, माघ तथा माषोत्तर काव्यों के चिर-परिचित माध्यम, यमक तथा चित्रशैली का लिबास पहन कर प्रकट हुई है। काव्य के पूरे दो सर्गों में, यमक के रूप में, भाषायी जादूगरी की गयी है । वैसे यमक की विद्रूपता सातवें सर्ग में अधिक विकराल है, जहां कवि ने पाठक को आद्यन्त पाद