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दिग्विजयमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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रसचित्रण
रसात्मकता की दृष्टि से दिग्विजयमहाकाव्य की विचित्र स्थिति है। इसमें काव्यनायक की जिन आध्यात्मिक उपलब्धियों तथा उनके माध्यम से आहत धर्म की उत्कृष्टता का जो प्रतिपादन किया गया है, उसके अनुरूप इसमें शान्त रस की प्रषानता नहीं है। इसका कारण यह है कि काव्य में वर्णित चारित्रिक दिग्विजय के अभियान पक्ष को कवि ने अधिक महत्त्व दिया है जिसके फलस्वरूप उसका धार्मिक स्वर मन्द पड़ गया है। वर्तमान रूप में, काव्य में, श्रृंगार का सबसे अधिक, दो स्थानों पर पल्लवन हुआ है। इस दृष्टि से शृंगार को काव्य का मुख्य रस माना जा सकता है, परन्तु यह काव्य की प्रकृति के प्रतिकूल है। वैसे भी 'मनसिजरस' की अवमानना में ही साधुत्व की चरितार्थता" है। वास्तविकता यह है कि रसचित्रण में कवि को विशेष सफलता नहीं मिली है । मेघविजय के अन्य दो महाकाव्य भी, जैसा उनके विवेचन से स्पष्ट है, रसचित्रण की दृष्टि से कच्चे हैं। सहृदय को रसचर्वणा कराना कवि का उद्देश्य भी नहीं है।
__ग्यारहवें सर्ग में, संप्रयोग-वर्णन के अन्तर्गत, सम्भोग श्रृंगार की सघन अभिव्यक्ति हुई है। चन्द्रमा को दिग्वधूओं के साथ कामकेलिया करता देखकर प्रेमीजन भी श्रृंगार की माधुरी में खो जाते हैं। चिर बिछोह के पश्चात् मिले युगल की ये चेष्टाएँ सम्भोग की कमनीय झांकी प्रस्तुत करती हैं। मदमाते युवक ने हास-विलास से प्रियतमा की विरह-वेदना को दूर कर दिया है । वह मानो उसके हृदय में प्रविष्ट होने के लिये उसके कण्ठ से चिपक गयी है। प्रिय उसे देर तक भोगता रहा । उसके मालादि भूषण सब टूट गये पर प्रणयसुख में लीन उसे इसका भान भी नहीं हुआ।
चिरविरहजं दुःखं प्रत्यादिदेश निदेशकृद
विविधवचनन्यासहसिविलासकरः प्रियः। सपदि हृदये तन्वावेष्टुं वधूरवधूतभीस्तत
इव लघुर्लग्ना कण्ठे चिरं बुभुजेऽमुना ॥ कुसुमशयनादुच्चर्नीत्वा धृता भुजयोयुगे ।
मुबमुदवहद भार्या विश्वाप्रियरवलालिता। प्रणयविवशा भूषामाल्यादिके विगलत्यपि
न हि गणयति त्यागी रागी कदापि वसुव्ययम् ॥ ११.३१-३२ यहां नायक की नायिका-विषयक रति स्थायी भाव है। वधू आलम्बन विभाव है। रात्रि का शान्त-स्निन्ध वातावरण तथा प्रेमी युग्म के हास-विलास उद्दीपन विभाव हैं । गाढालिंगन के द्वारा नायिका की नायक के हृदय में प्रविष्ट होने की चेष्टा, १०. मनसिजरसं सर्व मत्याऽवमत्य दृढव्रताः। वही, ११.७