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जैन संस्कृत महाकाव्य छिप जाते हैं।
गगनसरिति स्नानं चक्रे द्विजाधिपतिश्चिरं
__ भगणमिषतः प्रादुर्भूतास्तदम्बुनि बुदबुदाः । निविडजडिमच्छित्य वेगाद् विभेजुषि वारुणी
मुषसि विरते तस्मिन्नते क्रमाच्छममाययुः॥ ५.६५ छठे सर्ग में वसन्त का वर्णन स्पष्टतः माघ से प्रभावित है, जिसने षड्ऋतुचित्रण में, यमक के प्रयोग में, अपना कौशल प्रदर्शित किया है। यमक ने मेघविजय के वर्णन का सारा सौन्दर्य नष्ट कर दिया है। इसमें अधिकतर वसन्त के उद्दीपक पक्ष का चित्रण किया गया है । वसन्त में कोयलों की हृदयबेधी कूक तथा पुष्प-सम्पदा से अभिभूत होकर मानवती, मान छोड़कर, प्रियतम का मनुहार करने लगी है ।
विरहिणां सहकारमहीरुहा किमपहृत्य कुलान् मुकुलादिभिः । प्रियतमांकजुषां सुशां पिकध्वनिभृता निभृता रतिरादधे ॥ ६.२६ तरुवनान्निपतत्कुसुमैः समं स्मरशरैरिव मूतिधरैः क्षता।
सविनयं प्रियमन्वनयत् स्वयमनवमा नवमानवती वधः ॥ ६.२८ मेघविजय ने कुछ स्थलों पर प्रकृति को मानवी रूप भी दिया है । वसन्तवर्णन में सूर्य को कामुक के रूप में चित्रित किया गया है। वह अपनी प्राणप्रिया उत्तरदिशा के वियोग में क्षीण हो गया है और पुंश्चली दक्षिणा दिशा ने भी उसे लूट कर ठुकरा दिया है। बेचारा हताश होकर पुनः पूर्व नायिका के पास जा रहा है । वसन्त में सूर्य के उत्तरायण में संक्रमण का यह वर्णन मानवीकरण के फलस्वरूप सजीव तथा रोचक बन गया है ।
बहुदिनान्युदगम्बुजलोचनाविरहतः कृशकान्तिरहर्मणिः ।
हृतवसुन्नु दक्षिणया तदुत्सुकमनाः कमनादिव निर्ययौ ॥ ६.२२ प्रभात के समय ताराओं का यह आचरण पतिव्रताओं के समान है। पति (चन्द्रमा) के परलोक चले जाने पर वे साध्वियां, उसके वियोग का दुःख न सह सकने के कारण, प्रातःकालीन सूर्य की लालिमा में जल कर सती हो गयी हैं। ताराओं पर पतिव्रताओं के आदर्श का आरोप करने से प्रभात का सामान्य दृश्य कितना प्रभावशाली बन गया है !
पत्युस्तदास्तनगमने हिमांशोस्तारास्त्रियस्तद्विरहेण दूनाः ।
प्रभातसन्ध्यारुणिमानलान्तः सत्यो हि सत्यं विविशुविशुद्धाः ॥ ६.७६ इस प्रकार दिग्विजय के व्यापक प्रकृतिचित्रण में यद्यपि कुछ चित्र सुन्दर हैं किन्तु वह बहुधा मार्मिकता से शून्य है। प्रकृति-वर्णन में मेघविजय का उद्देश्य शास्त्रीय लक्षणों की खानापूर्ति करना है।