________________
२००
जैन संस्कृत महाकाव्य
ब्रह्मा भी उसके अनवद्य रूप का यथार्थ वर्णन करने में असमर्थ हैं। उर्वशी आदि देवांगनाएं तथा गौरी, रुक्मिणी, सरस्वती आदि प्रख्यात सुन्दरियां उसके सम्मुख तुच्छ हैं (५.१०-१२) । स्थूलभद्र जैसे युवक को प्रेमी के रूप में पाकर वह कृतार्थ हो जाती है। प्रिय के आगमन मात्र से उसका अंग-अंग ऐसे खिल गया जैसे राजा की कृपा पाकर अधीनस्थ अधिकारी । उसकी साधे पल्लवित ही हुई थीं कि सहसा उन पर तुषारपात हुआ। स्थूलभद्र पिता के बलिदान से व्यथित होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता है । कोश्या पर अचानक वज्रपात हुआ । परन्तु वह इसका दुरुपयोग वेश्यावृत्ति में नहीं करती। वह तो स्थूलभद्र के अतिरिक्त किसी अन्य की कल्पना भी नहीं कर सकती । स्थूलभद्र से विमुख होकर किसी अन्य युवक को फांसने का सुझाव वह घृणा-पूर्वक अस्वीकार कर देती है।
है है कृत्वेति सा कोश्या कणो पिधाय चाभ्यधात् । ___ मा भाषस्व भगिन्येवं ममाप्रीतिकरं त्विदम् ॥ १०.७
स्थूलभद्र के वियोग में उसका मन और शरीर दोनों जर्जर हो जाते हैं। अपने को झुठलाने के लिये वह उसे प्रेमपत्र लिखती है । भाग्य की विडम्बना, जब उसका प्रिय आया भी, तो वह संसार से विरक्त हो चुका था। वह नाना नृत्यों तथा काम-चेष्टाओं से उसे पुनः आकर्षित करने का प्रयत्न करती है और विरहताप के निवारण के लिये 'मनोरति' का खुला निमन्त्रण देती है, पर स्थूलभद्र अब पूर्णतया परिवर्तित हो चुका था। कोश्या को अपने इस पूर्व-प्रेमी से ही भोग की निस्सारता का उपदेश सुनना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप उसमें संवेग का उदय होता है और वह श्राविका-धर्म स्वीकार कर जीवन का उत्कर्ष प्राप्त करती है । स्थूलभद्र के गुरुभ्राता छद्ममुनि को अनाचार के गर्त से उबार कर वह वेश्या माता, गुरु तथा तत्त्वोपदेशक के पूज्य पद पर आसीन होती है। श्रीयक
___ श्रीयक स्थूलभद्र का अनुज है । पितृवत्सलता उसके व्यक्तित्व की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । पितृभक्ति के कारण उसे पिता की उचित-अनुचित, सभी प्रकार की, २८. चतुर्वक्त्रोऽपि नो ब्रह्मा वर्णयन् पारमश्नुते । ४.१ २६. आगच्छन्तं प्रियं मत्वा कोश्यांगानि चकासिरे । १५.११० ३०. साधोः संगतितः कोश्या वेश्यापि श्राविकाजनि । १७.७२ ३१. अद्य पश्चात्त्वमेवासि ममोपकारकारिणी
माता त्वं त्वं गुरुश्चापि तत्त्वमार्गप्रदेशिका ॥१७.१५६ अहमस्मादनाचारान्निपतन्नरकान्तरे। त्वया हितोपदेशेन तारितो वारितः पथात् ॥१७.१६०