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जैन संस्कृत महाकाव्य
व्यथा की व्यंजना स्निग्ध तथा कोमल पदावली में की गयी है । समासाभाव तथा कातरतापूर्ण भाषा उसकी विकलता को दूना कर देते हैं । वियोग ने उसके हृदय को इतना तोड़ दिया है कि उठना, बैठना, सोना, चलना आदि अनिवार्य कृत्य भी उसके लिए भार बन गए हैं । इन पंक्तियों में एक-एक अक्षर से कोश्या की विवशता तथा विकलता टपक रही है ।
किं करोमि क्व यामि कस्याग्रे पुत्करोम्यहं ।
वदामि कस्य दुःखानि वियुक्ता प्रेयसा सह ।। ६.१३६ सखि तद् वस्तु संसारे विद्यते यदि तन्नय ।
वियुक्ता मानवा येन क्षणं रक्षन्ति यन्मनः । ६. १३७
लयनं शयनं चापि क्रमणं रमणं तथा ।
मह्यं न रोचते किंचित् सखि स्वामिवियोगतः ॥ ६.१३८
इन विषादपूर्ण भावों के विपरीत सूरचंद्र ने कोश्या की हर्षोत्फुल्लता का चित्रण तदनुरूप भाषा में किया है । चिरविरह के पश्चात् प्रिय के आगमन का समाचार सुनकर वेश्या आनन्द से आप्लावित हो जाती है । उसे मिलने को अधीर कोश्या की त्वरा तथा उत्सुकता का वर्णन करने के लिए प्रवाहपूर्ण पदावली का -प्रयोग किया गया है, जो अपने वेग मात्र से उसकी अधीरता को मूर्त कर देती है । कुत्र कुत्रेति जल्पन्ती दधावे धनिकं प्रति ।
कोश्या प्रेमवशासंज्ञा वात्याहतेव तूलिका ।। १५.१०६
न स्पृशन्ती भुवं पद्भ्यां निषेधन्ती निमेषकान् ।
उद्यांती ददृशे कोश्या सखीभिरमरीव सा ।। १५.१०७
प्रिय को आंख भर कर देखने की बलवती स्पृहा है यह जिसने उसे देवांगना बना दिया है।
व्याकरण ज्ञान और शाब्दीक्रीडा
स्थूलभद्रगुणमाला में पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है । यह कवि का अभीष्ट भी नहीं है । किन्तु विचित्र बात है कि विरहवर्णन जैसे कोमल प्रसंग में उस पर व्याकरण एवं शाब्दी क्रीडा द्वारा अपना रचना कौशल प्रदर्शित करने की धुन सवार हुई है ।
सामुद्रलावण्य अण् प्रत्यय के विना समुद्रलवण बन जाता है । कोश्या के उल्लास तथा वेदना की व्यंजना 'अण्' प्रत्यय के सद्भाव एवं अभाव के आधार पर की गयी है । प्रियतम के संयोग में उसके लिए 'सामुद्रलावण्य' दो स्वतंत्र पद थे अर्थात् उसका शरीर अतिशय लावण्य से परिपूर्ण था । उसके वियोग में, अण् प्रत्यय के बिना वह एक पद बन गया है। उसके लिए अब सब कुछ ' क्षाररूप' हो गया है ।