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दिग्विजय महाकाव्य : मेघविजयगणि
देवानन्दमहाकाव्य' में मेघविजय ने विजयप्रभसूरि के चरित पर दृष्टिपात तो किया किन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ । विजयप्रभ के प्रति कवि की श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ तथा उच्छल है कि उनके सारस्वत वन्दन के लिये अल्पकाय काव्य का एक अंश सर्वथा अपर्याप्त था । मेघविजय ने अपनी गुरु-भक्ति की अभिव्यक्ति दो स्वतन्त्र ग्रन्थों में की है । मेघदूतसमस्यालेख विजयप्रभ के प्रति विज्ञप्ति पत्र है । तेरह सर्गों का प्रस्तुत दिग्विजयमहाकाव्य कवि की विशालतम कृति है, जिसमें विजयप्रभसूरि के चरित, विशेषतः उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों का विस्तार - पूर्वक निरूपण करने का उपक्रम है । उदात्त चरित, प्रभावक गुरु को काव्य का विषय बनाना अस्वाभाविक नहीं है । खेद यह है कि विद्वान् तथा प्रतिभाशाली होते हुए भी उपाध्याय मेघविजय, काव्य रूढ़ियों की संकरी गली में फंस कर तथा धर्मोत्साह के प्रवाह में बह कर अपने निर्धारित लक्ष्य से च्युत हो गये हैं । १२७४ पद्यों के इस विशाल काव्य के परिशीलन से विजयप्रभसूरि के विषय में हमारी जानकारी में विशेष वृद्धि नहीं होती ।
दिग्विजय - काव्य का महाकाव्यत्व
प्रस्तुत काव्य में मेघविजय ने देवानन्द की स्वरूपगत त्रुटियों का परिमार्जन करने का प्रकट प्रयत्न किया है । उदात्त कथानक, महच्चरित तथा महदुद्देश्य - महाकाव्य के ये तीन आन्तरिक स्वरूपविधायक तत्त्व दिग्विजयमहाकाव्य की मुख्य विशेषताएं हैं। धीरोदात्त गुणों से सम्पन्न, इभ्यकुलप्रसूत विजयप्रभसूरि की साधना तथा धर्मं प्रभावना की अदम्य स्पृहा काव्य में महच्चरित की सृष्टि करती है । उनकी दिग्विजय में अन्तर्निहित आध्यात्मिकता की उच्छलता के कारण काव्य का कथानक उदात्तता की भूमि पर प्रतिष्ठित है । सार्वदेशिक धर्मविजय के द्वारा आर्हत धर्म का एकच्छत्र राज्य स्थापित करना, काव्य रचना का प्रेरक उद्देश्य है' । मेघविजय के १. देवानन्द महाकाव्य दिग्विजय महाकाव्य से पूर्ववर्ती रचना है। इसका विवेचन आगे यथास्थान किया जाएगा ।
२. सम्पादक: अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रंथांक १४, बम्बई, सम्वत् २००१
३. सार्वत्रिकं विजयते भरते प्रसिद्धमेकातपत्रमिहाहं तधर्म राज्यम् । दिग्विजय महाकाव्य १३.७