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दिग्विजयमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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अन्य काव्यों की भांति दिग्विजय महाकाव्य भी रस की दृष्टि से कच्चा है । काव्य में जिस रस की, तुलनात्मक कोण से, सर्वाधिक अभिव्यक्ति हुई हैं, वह श्रृंगार है, किन्तु श्रृंगार रस काव्य की नैतिक प्रकृति तथा उद्देश्य के प्रतिकूल है। काव्य में श्रृंगार को यह महत्त्व शास्त्रीय विधान के कारण दिया गया प्रतीत होता है। वीर, हास्य, अद्भुत आदि रस, गौण रूप में काव्य की रसात्मकता की सृष्टि में योग देते हैं।
महाकाव्य के इन मूलभूत तत्त्वों के समान स्थूल लक्षणों का भी दिग्विजय में निष्ठा से पालन किया गया है । परम्परा के अनुसार इसका आरम्भ चौबीस पद्यों के लम्बे मंगलारण से हुआ है, जिनमें क्रमशः चौबीस तीर्थंकरों से कल्याण की कामना की गयी है । काव्य का शीर्षक, सर्गों का नामकरण, छन्दों का विधान भी शास्त्र के अनुकूल है । द्वीप, नगर, उपवन, वसन्त, पुष्पावचय, सूर्योदय, सूर्यास्त, पर्वत आदि के काव्योचित कल्पनापूर्ण तथा विस्तृत वर्णनों से, एक ओर, इस प्रशस्तिपरक काव्य में विविधता का समावेश हुआ है, दूसरी ओर, चित्रकाव्य तथा यमक में लक्षित पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति से मिलकर ये दिग्विजयमहाकाव्य की शास्त्रीयता के परिचायक हैं । प्रौढ़ (कहीं-कहीं कष्टसाध्य) तथा गरिमापूर्ण भाषा भी काव्य की इसी शैली की ओर इंगित करती है। रचनाकाल
दिग्विजयमहाकाव्य में इसके रचनाकाल का कोई संकेत नहीं है। इसमें प्रान्तप्रशस्ति का भी अभाव है । मेघविजय की अन्य कृतियों के सन्दर्भ में यह आश्चर्यजनक अवश्य है, किन्तु इस आधार पर, काव्य के सम्पादक की, झांति यह कल्पना करना कि दिग्विजयमहाकाव्य मेघविजय की अन्तिम रचना है तथा उनके निधन के कारण इसमें प्रान्त-प्रशस्ति का समावेश नहीं हो सका, युक्तिपूर्ण नहीं है। पट्टधरों के अनुक्रम की दृष्टि से दिग्विजयमहाकाव्य, जिसमें विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयप्रभ का वृत्त वर्णित है, देवानन्द के बाद की रचना है। देवानन्दमहाकाव्य की रचना सम्वत् १७२७ की विजयदशमी को पूर्ण हुई थी। दिग्विजयमहाकाव्य में विजयप्रभसूरि के देहावसान का उल्लेख नहीं है । उनका स्वर्गरोहण सम्वत् १७४६ में हुआ था । अतः सम्वत् १७२७ तथा १७४६ के मध्य, दिग्विजयकाव्य का रचना काल मानना उचित होगा । मेघविजय की अन्तिम ज्ञात कृति सप्तसन्धानमहाकाव्य है, जिसकी पूर्ति सम्वत् १७६० में हुई थी। ........ . .... .
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४. दिग्विजयमहाकाव्य, प्रस्तावना, पृष्ठ १ ५. देवानन्दमहाकाव्य, प्रशस्ति, ८५. ६. सप्तसन्धानमहाकाव्य, प्रशस्ति, ३