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दिग्विजयमहाकाव्य : मेघविजयगणि व्याज से वेदान्त, कापालिक आदि नाना मतों का निरूपण किया गया है। पूर्व दिशा को व्यसनों तथा अनाचारों से उबारने के लिये विजयप्रभ उस ओर प्रस्थान करते हैं । इस सर्ग में प्रभात का वर्णन, बिम्ब वैविध्य के अभाव के कारण, पिष्टपेषण बनकर रह गया है। पूर्ववर्ती दो सर्गों की भांति नगरवर्णन के पश्चात् इसमें आगरा नगर, वहां के राजप्रासाद, प्राचीर, उपवन, वाटिका आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है । ग्यारहवें सर्ग में विजयप्रभ, आगरा से प्रयाग तथा पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी होते हुए पटना की ओर विहार करते हैं । इस प्रसंग में कवि ने यमुना, सूर्यास्त के बाद प्रेमी युगलों के मिलन, प्रयाग, त्रिवेणी, वाराणसी आदि के वर्णनों से अपने वर्णन-कौशल का परिचय दिया है । बारहवें सर्ग में पार्श्वप्रभु की स्तुति तथा पटना का वर्णन है । पटना में चातुर्मास के पश्चात् विजयप्रभ सम्मेततीर्थ की वन्दना के लिये प्रस्थान करते हैं । इस प्रसंग में चिन्तामणि पार्श्वनाथ की स्तुति की गयी है। तेरहवें सर्ग में चौबीस तीर्थंकरों, गणधरों तथा सम्मेतगिरि का वर्णन है । सम्मेतगिरि की यात्रा के पश्चात् विजयप्रभ भगवान् महावीर के जन्मस्थान कुण्डिननगर में उपवास तथा पटना में चतुर्मास करते हैं । यहीं काव्य सहसा समाप्त हो जाता है।
कथानक के विनियोग की दृष्टि से दिग्विजयमहाकाव्य उस युग की प्रतिनिधि रचना है । इसमें कथानक का महत्त्व अधिक नहीं है । प्रथम चार सर्गों का मूल कथावृत्त से केवल इतना ही चेतन सम्बन्ध है कि वे इसकी भूमिका निर्मित करते हैं। मूल कथानक वाले भाग में वर्णनात्मक प्रसंगों की और अधिक भरमार है। ज्यों-ज्यों कवि काव्य के अन्त की ओर बढ़ता गया त्यों-त्यों उसकी वर्णनात्मक प्रवृत्ति विकटतर होती गयी। आठवां सर्ग पार्श्वप्रतिमा के वर्णन पर खपा दिया गया है। अन्तिम चार सर्ग तो आद्यन्त नगर, प्रासाद, प्राचीर, वाटिका, नदी, सूर्यास्त, सूर्योदय, प्रभात सम्मेतगिरि के वर्णनों तथा स्तोत्रों की बाढ़ से आप्लावित हैं । वास्तविकता तो यह है कि अपनी वर्णनशक्ति के प्रदर्शन के फेर में फंस कर काव्यकार अपने गुरु की आध्यात्मिक तथा चारित्रिक उपलब्धियों के निरूपण के मुख्य उद्देश्य से भी बहक क्या है । परवर्ती संस्कृत महाकाव्यों में वर्णन-प्रकार की वेदी पर वर्ण्य विषय की बलि देने की जो प्रवृत्ति पायी जाती है, दिग्विजयमहाकाव्य में उसका निकृष्ट रूप दिखाई देता है। प्रकृति वर्णन
मेघविजय ने अपने अन्य दो काव्यों की अपेक्षा दिग्विजयमहाकाव्य में प्राकृतिक दृश्यों का व्यापक चित्रण किया है, और इस अनुपात में, उसे कवि के प्रकृति-प्रेम का घोतक माना जा सकता है । परन्तु पण्डित कवि की वैदग्धी को प्रकृति से सहज अनुराग नहीं है । काव्य में प्रकृति का यह चित्रण शास्त्रीय विधान के पालन की व्यग्रता से