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स्थूलभद्र गुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र
सति सामुद्रलावण्ये अभूतां द्वभिदा त्वयि ।
ते प्रत्ययं विनायातामेकं पद्य गते च मे ।। ६. ११४
वेश्या की व्यथा का संकेत करने के लिए कवि ने शब्दों के साथ खिलवाड़ भी किया है। संतोष यह है कि ऐसे पद्य संख्या में अधिक नहीं है, " न ही उनमें क्लिष्टता है । प्रस्तुत पद्यों में सात पदों के आदिवर्ण का लोप करने से ही कोश्या की विरहावस्था का भान होता है ।
इभयानोन्नतकुचा राजीवपाणिरीश्वरी । तथा शिखरदशनाऽमृतवाक् मनोरमा ॥ ६.१२२ सति त्वयीदृशी स्वामिन्नभवं तु गते त्वयि । सप्तानामादिवर्णोऽप्यगमदेषां क्षणादपि ॥ ६.१२३
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निम्नोक्त पंक्तियों में केवल क्यङ् प्रत्ययान्त क्रियाएं प्रयुक्त की गयी हैं ।
रक्षा रक्षायते शीर्षे वेणी वेणीयते शुचा ।
त्वां विना देव देवान्मे विग्रहो विग्रहायते ।। ६.१२५
अलंकारविधान
यह कहना अत्युक्ति न होगा कि स्थूलभद्रगुणमाला काव्य की अलंकार - योजना अप्रस्तुत विधान की नींव पर अवस्थित है। सूरचंद्र के अप्रस्तुतों का कोई ओर-छोर नहीं है । उसकी उर्वर कल्पना, कुशल बुनकर की तरह निरन्तर अप्रस्तुतों का जाल बुनती जाती है । अत्यन्त सामान्य अथवा महत्त्वहीन वस्तु के लिए भी सूरचन्द्र किस सरलता से नाना अप्रस्तुत जुटा सकता है, इसका संकेत पहले किया जा चुका है । अकेले कोश्या के स्तनों के वर्णन में उसने सत्ताईस अप्रस्तुत प्रयुक्त किए हैं । सूरचन्द्र के अधिकतर अप्रस्तुत लोकव्यवहार, प्रकृति, परम्परा, श्रृंगार आदि जीवन के विविध पक्षों से गृहीत हैं । कुछ कवि के अनुभव तथा कल्पनाशक्ति से प्रसूत हैं । अप्रस्तुतों का यह निपुण विधान कवि कल्पना को द्योतित करता है तथा भावाभिव्यक्ति को सघन बनाता है । सूरचन्द्र के अप्रस्तुत उपमा, अतिशयोक्ति, रूपक, अप्रस्तुतप्रशंसा आदि के रूप में प्रकट हुए हैं, किन्तु उन्होंने अधिकतर उत्प्रेक्षा का परिधान धारण किया है । उपर्युक्त विविध प्रसंगों में सूरचंद्र की उत्प्रेक्षाओं के सौन्दर्य का यथेष्ट परिचय मिला है। यहां कुछ अन्य अनूठे उदाहरण दिए जाते हैं ।
कश्या के सौन्दर्य तथा सात्त्विक भावों के वर्णन में कवि ने अपनी कल्पना का कोश लुटा दिया है । प्रियमिलन से उत्पन्न आनन्दाश्रु उसकी आंखों में ऐसे लग रहे थे मानों कमलिनी पर ओस की बूंदें हों (५.२४) । कामावेश से उसका छरहरा शरीर कांप उठा, मानो काम मन्त्रिपुत्र को बींधने के लिए भाले का संधान कर रहा
३३. इस कोटि के अन्य पद्य - ६.११५-१२०, १२३