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स्थूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र आज्ञा सदैव स्वीकार्य है । अपने परिवार को राजकोप से बचाने तथा अपनी स्वामिभक्ति प्रमाणित करने के लिये जब मन्त्री शकटाल उसे उसका (मन्त्री का) प्राणान्त करने का आदेश देता है, श्रीयक उसका भी पालन करता है। इसे अन्धश्रद्धा कहा जा सकता है, किन्तु यह कोरी विवेकहीनता है। उस जैसे नीतिकुशल व्यक्ति को चाहिये तो यह था कि वह षड्यन्त्र की जड़ ही काट देता तथा राजा को वस्तुस्थिति से अवगत करता (जैसा वह बाद में करता भी है), परन्तु वह पितृहत्या के पाप का, अनिच्छा से सही, भाजन बनता है।
श्रीयक व्यवहार-कुशल व्यक्ति है। नन्दराज के पितृवध का कारण पूछने पर उसका यह कथन जहां उसकी व्यावहारिकता का सूचक है, वहां इसमें राजा के प्रति उपालम्भ भी छिपा हुआ है।
स्वामिस्तातेन किं तेन यो हि वो न सुखायते ।
किं हि तेन सुवर्णेन कर्णस्त्रुटयति येन तु ॥ ७.११३ वह नन्दराज के मन्त्रित्व का वैधानिक अधिकारी स्थलभद्र को मानता है। वह तब तक मन्त्रिमुद्रा स्वीकार नहीं करता जब तक उसका अग्रज उसे अस्वीकार नहीं करता । वह वररुचि से पिता के वैर का बदला लेता अवश्य है, किन्तु वह बहुत मूल्यवान् बलिदान पहले दे चुका है। वररुचि के निष्कासन तथा निधन से उसका मार्ग निष्कण्टक हो जाता है और वह निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है।
खला उत्खानिताः सर्वे सेवकाः स्वे सुखीकृताः।
भाण्डागारा भृतास्तेन श्रीयकेण च मन्त्रिणा ॥ ८.१८४ अन्य पात्र
___ शकटाल नन्दराज का मन्त्री है । वह शिष्ट तथा दर्शनशास्त्र का ज्ञाता है। राजा के प्रति उसकी निष्ठा असन्दिग्ध है। राजा की हितकामना के कारण ही वह सहसा वररुचि को धन देने की संस्तुति नहीं करता। दुर्भाग्यवश वह वररुचि के षड्यंत्र तथा नन्दराज की अदूरदर्शिता का शिकार बनता है।
वररुचि पाखण्डी तथा धूर्त ब्राह्मण है। वह कपट से राजा का विश्वास प्राप्त कर लेता है जिससे वह उसे यथेष्ट धन देकर पुरस्कृत करता है। अपने शत्रुओं को धराशायी करने के लिये वह सभी उपायों का प्रयोग कर सकता है। शकटाल को उसका विरोध करने का मूल्य प्राणों से चुकाना पड़ता है, यद्यपि कालान्तर में, वह भी श्रीयक के जाल में फंस कर प्राणों से हाथ धो बैठता है। भाषा आदि
स्थूलभद्रगुणमाला के रचयिता का उद्देश्य मुनि स्थूलभद्र के गुणगान से पुण्य