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जैन संस्कृत महाकाव्य
किं वा यौवनराट् बाल्यवृद्ध भ्रातृवियोगवान् । स्मरणार्थं स्तनव्याजाज्जाने तत्स्तूपमाचरत् ॥ ३.१३४ रमण्या रोमराजीयं सुरूपा परिपेशला । मन्ये लावण्यवाहिन्या बालसेवालवल्लरी ॥ ३.१६६ किंवा लावण्यनद्यां वा पद्ममेतत्सकणिकम् ।
अस्त्यस्या एव वावर्तः कामिनाविकदुस्तरः ॥ ३.१८२
यहां अलकावली, आंखों, बाहु, स्तनों, रोमराजी तथा नाभि के लिये क्रमशः यौवनराज की चामर - पंक्ति, चकोरयुगल एवं मृगखंजन, नारी रूपी नदी की तरंग, शैशव तथा वार्धक्य के स्मरणार्थ स्तूप तथा सेवालवल्लरी अप्रस्तुतों की योजना की गयी है जिससे उसका सौन्दर्य अनुपम बन गया है" ।
पुरुष - सौन्दर्य के प्रतीक स्थूलभद्र के वर्णन में भी कवि ने उपर्युक्त विधि अपनायी है । सन्तोष यह है कि स्थूलभद्र का सौन्दर्यवर्णन अपेक्षाकृत अधिक सन्तुलित है, यद्यपि उसका भी आपादमस्तक समूचे अंगों का चित्रण किया गया है । चरित्रचित्रण
स्थूलभद्रगुणमाला के सीमित कथानक में केवल तीन मुख्य पात्र हैं । उनका अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है । वे 'टाईप' नहीं हैं । चरित्रचित्रण में यह सूरचन्द्र की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है ।
स्थूलभद्र
पाटलिपुत्र- नरेश नन्द के मन्त्री शकटाल का पुत्र स्थूलभद्र काव्य का नायक है । वह साहित्य तथा संगीत का प्रेमी है । संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं में काव्य-रचना करने में वह कुशल है"। उसकी उदारता प्रशंसनीय है; सौन्दर्य वस्तुतः वह साक्षात् नलकूबर है" । उसे देखकर विष्णु, शंकर, इन्द्र, तथा कुमार कार्तिकेय का भ्रम होता है" । पाटलिपुत्र की रूपवती रेवन्त तुल्य उसे प्रथम बार देख कर ही उसके रूप पर रीझ जाती है ।
स्थूलभद्र का चरित्र प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के दो विरोधी छोरों में बंधा हुआ है । वह कोश्या के प्रेम में डूब कर माता-पिता, परिजन, यहां तक कि स्वयं को भी भूल जाता है । उसके लिये कोश्या समूचे संसार का पर्याय बन जाती है । किन्तु जैसा १७. ईदृशी नारी दृग्भ्यामन्या न दृश्यते । ४.८७ १८. कदाचिन्नव्यकाव्यानि जातु संगीतगीतकम् । कर्हिचित्प्राकृतं तद्वत् संस्कृतं चाप्यगुम्फयत् ॥ २.६१ १६. उदारः स्फारशृंगारः प्रत्यक्षो नलकूबरः । ४.१०६ २०. वही, २.१०४ १०८
मनमोहक है ।
काम, चन्द्रमा
गणिका कोश्या,