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जैन संस्कृत महाकाव्य
रोहिण्या रममाणस्य किं वा कज्जलमलगत् । किं वा शरीरकायेण किंचिच्छायापतत्तनौ ॥ ११.३६ तमालतालभे व्योम्नि शुभ्रास्तारा दिदीपिरे। मुक्ता इव हरिद्रत्नस्थाले कालकेलये ॥ ११.६६ कृष्णभूमेरथवा देशे तण्डुलाः पतिता इव ।
किं वा विभावरीवल्ल्या दृश्यते कुसुमावली ॥ ११.७० प्रकृति की विविध अवस्थाओं तथा मुद्राओं से सूरचन्द्र की गम्भीर परिचिति है। उसकी दृष्टि में प्रकृति भावशून्य अथवा मानव जीवन से निरपेक्ष नहीं है । उसमें मानव-हृदय की प्रतिच्छाया दृष्टिगोचर होती है । फलतः वह मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत तथा उसके समान नाना चेष्टाओं में रत है। मानव-मन के सहज ज्ञान तथा प्रकृति के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के कारण सूरचन्द्र प्रकृति तथा मानव में रोचक तादात्म्य स्थापित करने में सफल हुए हैं। उनकी शरत् काश की रेशमी साड़ी तथा हंसों के नूपुर पहन कर नववधू के समान प्रकृति के आंगन में आती है। कमल उसका सुन्दर मुखड़ा है, चकवे पयोधर तथा शालि छरहरा शरीर । पावसवर्णन में पृथ्वी को पुन: नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है । चिर वियोग के बाद पति के घर आने पर जैसे पत्नी शृंगार करके समागम के लिए अधीर हो जाती है, उसी प्रकार भूमिनायिका भी सजधज कर, पूरे एक वर्ष के पश्चात् प्रवास से लौटे पावस के साथ रमण करने को लालायित हो गयी है (१०-७२-७४,-७८) । तब वह 'वसुधावधू' की चिरसंचित साधे पूरी कर देता है और अंकुरों के रूप में उसके गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
तदा पुनः पुनर्मेघो वर्षणर्वसुधावधम्
अतोषयत्तदेषापि प्राप्तगर्भाकुरैरभूत् ॥ १०.८१ प्रभातवर्णन के प्रसंग में सूर्य तथा पूर्वदिशा पर क्रमशः शठनायक और खण्डिता नायिका का आरोप करके सूरचन्द्र ने प्रकृति के मानवीकरण के प्रति अपनी अभिरुचि का और परिचय दिया है । शठ सूर्य परांगना के साथ रतिकेलि के पश्चात् रात्रि की समाप्ति पर, जब घर लौटता है तो पूर्व दिशा पीले वस्त्र से मुंह ढक कर. अपना क्रोध व्यक्त करती है।
परया भास्करं रत्वा प्रेक्ष्य पूर्वेय॑यागतम् ।
स्वयं पीताम्बरं मूनि प्रावृत्यास्थात्पराङ्मुखी ॥ ६.७७ , अन्य समवर्ती काव्यों की तरह स्थूलभद्रगुणमाला में प्रकृति के उद्दीपन पक्ष को अधिक पल्लवित नहीं किया गया है । कतिपय स्थानों पर ही प्रकृति को मानव १६. वही, ११.१३-१४