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जैन संस्कृत महाकाव्य
उसकी तीव्रतम व्यंजना स्थूलभद्र को देखकर कोश्या पद्मिनी द्वारा वर्णित उसकी
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तथा उसके प्रेमपत्र में विप्रलम्भ की तीखी टीस है । परन्तु कोश्या के पूर्वराग के वर्णन में है। राजपाटी में युवा काम-विह्वल हो उठती है । मन्त्रिपुत्र के समक्ष दासी विकलता हृदय की गहराई को छूने में समर्थ है ।
तकसंगमिच्छन्ती दीना होनापरक्रिया ।
कोश्या मे स्वामिनी स्वामिन् वर्तते व्याकुलाबला ।। २.१५६ वेल्लमानास्ति वल्लीव तरसंगमवजता ।
क्षीणप्राणा गतत्राणा निरम्बुसंवरीव वा ।। २.१५७ स्वामिन् सा यदि सध्रीचीं कथंचिद् वीक्षते क्षणम् । तदाप्यर्धनिमीलाक्षी त्वदन्येक्षणशंकया ।। २.१६० सख्या अपि वचः श्रुत्वा सा शृणोति न सादरा । एवं जानाति मां मान्यस्त्वद्रूपो भ्रमयेज्जनः ।। २.१६१
रेवन्त तुल्य स्थूलभद्र की क्षणिक झलक ने उस रूपगर्विता को ऐसे झकझोरा है कि प्राणप्रिय के बिना वह वृक्ष के आश्रय से वंचित वल्लरी के समान निराश्रित तथा जलहीन मीन की भांति मरणासन्न है । प्रिय के ध्यान में लीन वह सखी को अधखुली आंख से ही देखती है । उसे भय है, पूरी आंख से देखने से उसकी दृष्टि किसी अन्य पुरुष पर न पड़ जाए। वह सखियों से बात भी बहुत कम करती है, कहीं प्रिय का रूप धारण करके कोई छद्मी उसे भ्रान्त न कर दे ।
विरह-वर्णन में तो विप्रलम्भ अपनी मार्मिकता के कारण करुणरस की सीमा तक पहुंच गया है। पक्ष, मास, वर्ष आते हैं और चले जाते हैं किन्तु कोश्या का प्रिय आने का नाम नहीं लेता । हृदय में उठती हूकों ने उसे जर्जर बना दिया है ।
चित्रशाला विशालेयं चन्द्रशाला च शालिनी ।
प्रतिशाला मरालाश्च शल्यायन्तेऽद्य त्वद्विना ।। ६. १३१ पक्षमासर्तुवर्षाणि मुहुरायान्ति तान्यपि ।
पुनरेको न मे नावो हला एति यतः सुखम् ।। ६.१३५ किं करोमि क् यामि कस्याचे पूत्करोम्यहं । वदामि कस्य दुःखानि वियुक्ता प्रेयसा सह । ९.१३६
समागम के अतिरिक्त कवि ने
सम्भोग के अन्तर्गत कोश्या तथा स्थूलभद्र के नायिका के कतिपय भावों तथा अनुभावों का भी रोचक चित्रण किया है । चिर विकलती के पश्चात् स्थूलभद्र को सहसा अपने सम्मुख देखकर कोश्या के उल्लास का ओर-छोर नहीं रहता । उसमें सात्त्विक भावों का उदय होता है। उद्दीपन विभावों के