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- जैन संस्कृत महाकाव्य
• लोकजीवन से गृहीत यह उपमा कितनी भावपूर्ण है ! प्रथम बार शयनगृह में जाती हुई नववधू के संकोच को देखते हुए तक्षशिला-नरेश की सीमा का उल्लंघन करने वाली भरत की सेना की आशंका का सहज ही भान हो जाता है।
___ अयं ह्य नशतभ्रातृराज्यादानैर्न तृप्तिभाक् ।
वडवाग्निरिवाम्भोभिर्वसन् रत्नाकरेऽपि हि ॥ ३.१४. मिथिक जगत् से संचित उपमान पर आधारित यह उपमा अतीव साभिप्राय है। निरन्तर समुद्रजल का शोषण करने वाली काल्पनिक कड़वाग्नि से भरत की राज्यक्षुधा की तुलना करके उसकी लोलुपता की असीमता का संकेत किया गया है।
मन्त्री आदि प्रजाजन तेजस्वी राजा से उसी प्रकार डरते हैं जैसे हाथी धधकती दावाग्नि से ।५३ शक्तिसंपन्न राजा की प्रचण्डता को रेखांकित करने के लिए दावानल उपमान कितना उपयुक्त है ! स्वामी के पराक्रम के अतिरेक से (भावी) विजय का भान हो जाता है जैसे बाला के स्तनों के उभार से उसके यौवन के आगमन की सूचना मिल जाती है । पराक्रम की प्रचण्डता के समक्ष 'स्तनोत्थान' भले ही कोमल प्रतीत हो किन्तु व्यंजक के रूप में यह बहुत भावपूर्ण है। रणभूमि से कुछ सैनिक ऐसे भांग गए जैसे कंचुली से सांप निकल भागता है । कुछ ने वीरता को उसी तरह छोड़ दिया जैसे कंजूस उदारता को छोड़ देता है ।५५ मूर्त तथा अमूर्त उपमानों के एक साथ प्रयोग से वर्ण्य विषय चमत्कृत हो उठा है !
- 'अमूर्त उपमानों पर आधारित पुण्यकुशल की उपमाएं बहुत अनूठी हैं । भ० बो० महाकाव्य में इनका प्राचुर्य है । भरत का चक्र आयुधशाला में इस प्रकार प्रविष्ट नहीं हुआ जैसे सांप के हृदय में ऋजुता ।" प्रस्थान करती हुई सेना से साकेत के राजप्रासाद का शिखर ऐसे अदृश्य होता गया जैसे कामात व्यक्ति से अतिशुद्ध चैतन्य । रथों, हाथियों तथा घोड़ों से खचाखच भरे हुए तक्षशिला के पुरद्वार में दूत को बड़ी कठिनाई से प्रवेश मिला जैसे योगी के हृदय में सहसा आवेश को स्थान नहीं मिलता। अमूर्त उपमानों के प्रति कवि की कुछ ऐसी रुचि हैं कि उसने अपनी मालोपमाओं का आधार भी इन्हीं को बनाया है । एकाधिक अप्रस्तुतों से उपमित होने के कारण वर्ण्य प्रसंग अविलम्ब व्यक्त हो जाता है । योद्धा ने विपक्षी की प्रत्यंचा को ५३. भ० बा० महाकाव्य, ४.५८ ५४. वही, ११.५४ ५५. वही, १५.८६ ५६. वही, १६.२८ ५७. वही, ६.३५ ५८. वही, १.५४ .
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