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भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल
१८१ का विशाल भण्डार बन गया है। अर्थान्तरन्यास के अतिरिक्त इन सूक्तियों ने उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, काव्यलिंग आदि का परिधान भी धारण किया है । ये सूक्तियां कवि के जीवन के विविध पक्षों के अध्ययन, संवेदनशीलता तथा व्यावहारिक ज्ञान की परिचायक हैं । कतिपय रोचक सूक्तियां यहां पाठकों के विनोदार्थ उद्धृत की जाती
क्रमं न लुम्पन्ति हि सत्तमाः क्वचित् । १.१४ सतां हि वृत्तं सततं प्रवृत्त्यै । २.३६ अहंकारो हि दुस्त्यजः । ३.७० अभयः श्रियां पदम् । ४.६० पापेऽषिके किं सुखमुत्तमानाम् । ८.१३ भाविनी हि गरीयसी । ११.११ बोध एव परमं नयनम् । १६.१
तोष एव सुखदो मुवि । १६.५५ अलंकार-विधान
भाषा के पश्चात् अलंकृति कलापक्ष की समृद्धि का दूसरा मूलभूत तत्त्व है । संस्कृत काव्यों में इसका साग्रह निवेश अलंकृति की महत्ता की स्वीकृति है । भ० बा० महाकाव्य में भी अलंकारों की व्यापक योजना हुई है किन्तु वे भाव-व्यंजना में कुछ इस प्रकार अनुस्यूत हैं कि वे काव्यकला के शाश्वत सहचर प्रतीत होते हैं । अनावश्यक अलंकार-भार से काव्य को आच्छादित करने का पुण्यकुशल का आग्रह नहीं
___ भ० बा० महाकाव्य में उपमा भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है । अप्रस्तुतों की खोज में पुण्यकुशल ने जीवन के प्राय: सभी पक्षों का अन्वेषण किया है। साभिप्राय तथा मार्मिक उपमान जुटाने में वह इतना सिद्धहस्त है कि 'उपमा पुण्यकुशलस्य' कहना अत्युक्ति न होगा ! उपमान-विधान के इसी कोशल के कारण उसके वर्णन सौन्दर्य से दीप्त हैं तथा भावव्यंजना में ऐसी प्रेषणीयता आयी है कि वर्ण्य भाव अथवा विषय तुरन्त प्रत्यक्ष हो जाता है । भावानुकूल अमूर्त उपमान संचित करने में कवि को अनुपम दक्षता प्राप्त है । विविध स्रोतों से गृहीत अन्य उपमानों के साथ ये उपमान उसके व्यापक जीवन-अनुभव तथा प्रकृति की सहज अभिज्ञता के सूचक हैं । पुण्यकुशल की उपमाओं की मार्मिकता के दिग्दर्शन के लिए कतिपय उदाहरण आवश्यक हैं।
पताकिनी श्रीभरतेश्वरस्य सीमान्तरं तक्षशिलाधिपस्य । साशंकमाना मुहुराससाद वधूनवोठेव विलासोहम् ॥ १०.१.