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जैन संस्कृत महाकाव्य
अपूर्वपूर्वाद्रिमिवांशुमालिनं महामृगेन्द्रासनमप्यधिष्ठितम् । महोभिरुद्दीपितसर्वदिग्मुखैर्वपुर्दुरालोकमलं च बिभ्रतम् ॥ १.७३ मुजद्वयीशौर्यमिवाक्षिगोचरं चरो महोत्साहमिवांगिनं पुनः । चकार साक्षादिव मानमुन्नतं वसुन्धरेशं वृषभध्वजांगजम् ॥१.७७
इस प्रकार भ. बा. महाकाव्य की भाषा की विभिन्नता, कृत्रिमता अथवा क्लिष्टता और प्रांजलता वाली विविधता नहीं बल्कि सौष्ठवपूर्ण सुबोधता तथा कम सुबोधता के बीच की भिन्नता है । अपने आदर्शभूत माघकाव्य के विपरीत जाकर पुण्यकुशल ने भाषायी सहजता का कीर्तिमान स्थापित करने का श्लाघ्य प्रयत्न किया
उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होने पर भी भ. बा. महाकाव्य की भाषा कुछ विचित्र त्रुटियों से दूषित है । इसमें अनेक ऐसे दोष दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी काव्यशास्त्रियों ने निन्दा की है। 'यत्तदोनित्यसम्बन्धः' का पालन करते हुए ६।४८ में 'स:' की तुलना में 'य:' का दो बार प्रयोग अक्षम्य है। साहित्यशास्त्र में यह दोष 'अधिक' नाम से ख्यात है। नीतोऽहमिन्द्रत्वमहं त्विदानीम् (२-२०), में 'अहं', 'त्वत्प्रतापदहने त्वदरीणाम्' (६.४५), में 'त्वत्', जलस्थपालिस्थितपद्मिनीभिः (.३) में स्थित', स्वस्वार्थचिन्ताविधिमाततान (११.१२) में 'स्व' पद अधिक हैं। भ. बा. महाकाव्य में कहीं-कहीं अर्थहीन पादपूरक निपातों का उदारता से प्रयोग किया गया है । 'तु' कवि का प्रिय निपात प्रतीत होता है। १.३१ में दो बार तथा १.३२,४.४४ ४.५३,१७.६७,१७.६८ में इसका एक-एक बार प्रयोग इस तथ्य का द्योतक है। कतिपय धातुओं तथा शब्दों को पुण्यकुशल ने ऐसे अर्थों में प्रयुक्त किया है, जिनमें उनका विधान नहीं है । अवति (३.१०६), चकते (४.६०) तथा अनुनयनम् (५.४८) क्रमशः जनयति, बिभेति तथा प्रसाधन के वाचक नहीं है। 'नैद्भिया त्रस्तमहीधराणाम्' (२.३७), तत्रातंककृदातंक: (३.७६), बाणघातभीत्येव भीत: (९.४६), तीक्ष्णांशुतप्त्या परितप्यमानाः (६.४५) में पुनरुक्तता है । काव्य में कुछ शब्द ऐसे अप्रचलित अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें यद्यपि उनका प्रयोग विहित है किन्तु उनमें उन अर्थों के बोध की शक्ति नहीं है । हंस (सूर्य), वडवामुख (पाताल); जराभीर (काम), मदन (मोम) इस कोटि के शब्द हैं।२ । शास्त्रीय भाषा में यहां 'असमर्थ दोष है । 'रक्ताक्षध्वजभगिनीतरंगभुग्नाम्' (१६.१५) में यमुना अर्थ की प्रतिपत्ति में व्यवधान होने के कारण 'क्लिष्टता' दोष है। अस्मऋद्धिपरिवर्धके रवी मैष कुप्यतु (७.८) तथा विलासगेहेष्वषिशय्य (१८.५५) में सप्तमी अपाणिनीय है।
अर्थान्तरन्यास का व्यापक प्रयोग होने के कारण भ० ब० महाकाव्य सूक्तियों ५२. क्रमशः ८.१३,९.४०,१८.५४