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. जैन संस्कृत महाकाव्य प्रायः ओजपूर्ण समासबहुला पदावली प्रयुक्त की जाती है। जैसा पहले संकेत किया गया है, भ. बा. महाकाव्य के युद्ध-वर्णन भाषा के ओज़ अथवा प्रौढता की अपेक्षा उसकी मधुरता एवं कोमलता और कविकल्पना की मनोरमता को अधिक व्यक्त करते हैं । कठोर प्रसंगों में भी पुण्यकुशल अपनी भाषा को क्लिष्टता से बचाने के लिये कितने प्रयत्नशील हैं, यह वर्णन इसका उत्तम निदर्शन हैं। भरत तथा बाहुबलि के द्वन्द्वयुद्ध में भाषा की उपर्युक्त विशेषताओं का कुछ आभास मिलता है, यद्यपि यहां भी प्रौढ़ता की बजाय समास-बाहुल्य पर अधिक बल है। ....... संघट्टस्फुरदनलस्फुलिंगनश्यत्पौलोमीसिचयक्षूिननातितीव ।
.... आकाशश्वसनरयविनीतखेदस्वेदाम्भःकणपरिमुक्तवीरकात्रम् ॥ ...षट्खण्डाधिपतिरथ क्रुधा करालो दण्डेन स्मयमिव मौलिमाबमञ्ज । ...तच्छीर्षाधिवसनकल्पितस्थिरत्वं निःशंकं बहलिपतेरुदनबाहोः॥ १७.५४-५५
भरत के सैन्य-प्रयाण के वर्णनों में भी भाषा का लालित्य तथा सौष्ठव दृष्टि गोचर होता है। युद्ध-चित्रण की भांति ये प्रसंग भी कविकल्पना से तरलित हैं। भरत के विजय-प्रयाण के समय चारों दिशाएं सेना द्वारा उड़ायी गयी धूलि से ढक जाती हैं। कवि की कल्पना है कि दिशाओं की वधुओं ने प्रभुतासम्पन्न पति से अपना उघड़ा मुंह छिपाने के लिये काला घूघट निकाल लिया है।
अनावृतं पश्यतु मा मुखाम्नमयं पतिनः प्रमुत्तोपपन्यः। इतीब रेणुच्छलतो हरिभिः समाददे नीलपटी समन्तात् ॥ २.४१
समरांगण में जाते हुए योद्धाओं को प्रोत्साहित करने वाली वीरपत्नियों की उक्तियां क्षत्रियोचित दर्प से परिपूर्ण हैं । यहां जो प्रांजल समासरहित भाषा प्रयुक्त हुई है, वह सैनिकों को कर्तव्य बोध कराने के लिये बहुत उपयुक्त है। वैदर्भी रीति अपने पूर्ण वैभव के साथ वीरांगनाओं की इन उक्तियों में प्रकट हुई है।
मां विहाय यथा यासि प्रमनास्त्वं रणांगणे । न तथा वीरतां हित्वागम्यं भवता गृहे ॥ ११.३० वीरसुर्जननी तेऽस्तु पिता वीरः पुनस्तव । त्वदेव साम्प्रतं वीर ! वीरपत्नी भविश्यहम् ॥ ११.३६ ।
पश्चात्ताप-पीडित भरत को निराशा की तन्द्रा से जगाकर युद्धार्थे प्रेरित करने के लिये सेनापति सुषेण के तर्क भी वीरोचित दर्प से स्पन्दित हैं किन्तु उनके व्याज से कवि ने राजा के लिये आवश्यक नीति-सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। उनकी भाषा प्रसंगानुकूल सुबोधता के कारण स्पृहणीय है। ---- प्रणयस्य वशंवदो नमः स्वजनं कुर्वमिक विकायत
.. 'निवसन्नपि विग्रहान्तरे विकृतो व्याधिरलं गुणान किम् ?,४.५७ .....