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भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल
१७७ उसके विचार में जो चर अपने मालिक को धोखा देता है अथवा अन्य की तुलना में उसे दुर्बल समझता है, वह वडवाग्नि के समान है, जो निरन्तर अपने आश्रयदाता को ही खाती है । कर्त्तव्यपालन में ही उसके जीवन की धन्यता है"। सुषेण
भ. बा. महाकाव्य में भरत के सेनानी सुषेण की चर्चा भी हुई है पर उसका चरित्र विकसित नहीं हो सका है । वह स्वामिभक्त, व्यवहारकुशल तथा राजनीतिपटु है । बाहुबलि की चुनौती से भरत के विचलित होने पर सुषेण उसे युद्ध के लिये प्रोत्साहित करता है । उसके तों में व्यावहारिकता तथा वीरता का समन्वय है। उसके विचार में भरत की उपेक्षा के कारण तथा ऋषभ का पुत्र होने के नाते बाहुबलि के पराक्रम की ख्याति हो. गयी है । राजा के लिये बन्धुप्रेम आदि की भावुकता निरर्थक है। 'नृपतिर्न सखा' यह राजा का आदर्शवाक्य है। विजयश्री की प्राप्ति युद्ध में ही होती है" । बाहुबलि के राज्य का वृत्तान्त जानने के लिये गुप्तचर भेजना उसकी राजनीतिक कुशलता का घोतक है। भाषा-शैली
भाषात्मक दृष्टि से भ. बा. महाकाव्य संयम तथा सन्तुलन की कृति है। अन्य बातों में माघकाव्य से प्रेरित होकर भी पुण्यकुशल ने उसकी गाढ़बग्ध भाषा तथा कृत्रिम शैली को ग्रहण नहीं किया, यह उसकी भाषात्मक सुरुचि का परिचायक है। उसके पदविन्यास का माधुर्य उसके प्रत्येक वर्णन तथा प्रसंग को नई आभा प्रदान करता है। लालित्य की अन्तर्धारा उसमें सर्वत्र प्रवाहित है। यह भावानुकूलता तथा प्रांजलता भाषा के वे गुण हैं, जो किसी रचना को महान् बनाते हैं । केवल भावात्मक सौष्ठव की दृष्टि से भी भ. बा. महाकाव्य उत्तम काव्यों से होड़ ले सकता
भ. बा. महाकाव्य में भावों तथा उनकी अनुगामी स्थितियों की विविधता का बाहुल्य है । घटना-बहुल इतिवृत्त को नाना प्रसाधनों से सजा-संवार कर विशाल आकार में प्रस्तुत करने का यह स्वाभाविक परिणाम था । भावों के अनुसार ध्वनियों को सजाने में पुण्यकुशल दक्ष है । परन्तु सहजता तथा कोमलता उसकी भाषा की दो ऐसी विशेषताएं हैं, जो प्रत्येक भाव अथवा प्रसंग के चित्रण में बराबर बनी रहती हैं। संस्कृत काव्यों में युद्ध का सजीव एवं प्रभावशाली चित्र उपस्थित करने के लिये
४७. ""स पयोधिलिसमानता गच्छति संभवारिः । वही, २.२७ ४८. दूतत्वं भरतेशस्य कृतं बाहुबलेः पुरः।
मम कीतिश्चिरं स्थानुरितामोदनुवाह सः॥ वही, ३.४६ । ४६. वही, ४.४६, ५५, ५६, ७३